Book Title: Jainendra Kahani 07
Author(s): Purvodaya Prakashan
Publisher: Purvodaya Prakashan

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Page 197
________________ - १६२ जनेन्द्र की कहानियां [सातवाँ भाग] उसके ऊपर मजबूती से पैर बाँध कर खड़ा होना सम्भव ही न था। उस को तो गिरना ही होगा । पर गिर कर टिकना कहाँ होगा...यह वह नहीं जानता था । उसे मालूम हुआ कि गाँधी एक आदमी है जो उस असली जमीन पर खड़ा है। पर मेरे पैर तो उस जमीन को छू भी नहीं पाते हैं। कहाँ मैं खड़ा होऊँ ? इस तरह अपनी जमीन से उखड़ कर वह जैसे अतल पाताल में गिरता जा रहा था ।-हराम, काम ! काम, हराम, !! वह हरामी है, हरामी है !!! तब उसे वह स्त्री याद आती थी, जिसको हराम का नहीं, काम का खाने की सीख उसने दी थी। उसने जी-तोड़ कर काम किया था, फिर भी वागीश ने उसे हराम का नहीं, काम का खाने की शिक्षा दी थी। कहा था, "आवारा न रहना, काम करना ।" पर वागीश खुद क्या कर रहा था ? उसने क्या आवारापन को ही एक कला का रूप नहीं दे लिया था ? क्या उसने अपनी ओर से छल भी उसमें और नहीं जोड़ दिया था ? इस तरह उसकी शोहरत और उसका बड़प्पन क्या सब एक बहुत बड़ा माया-जाल ही नहीं था ? अगर उस औरत का हाथ फैला कर भीख मांगना झूठ था, तो क्या उसका यह किताबें काली करके पेट भरने और शिक्षा देने का दम्भ भरने का धन्धा क्या झूठ नहीं था ? पर इस शंका के अतल में उसे तल न मिल रहा था? इससे ऊपर गाँधी की तस्वीर को देख कर रोता था और फिर रह कर बोतल सम्भाल लेता था। कुछ दिन और बीते कि 'छाया' का नोटिस आया कि चालीस रुपये सात रोज के अन्दर भेजो, नहीं तो मामला वकील के सुपुर्द किया जा रहा है। पढ़कर वागीश ने चैन की साँस ली। वह खुश हुया कि किसी की मरने की बात अब नहीं है, अदालत उसको जिला देगी। इसलिए नोटिस पाकर वह इस बारे में बेफिक्र हो गया। अब दया का प्रश्न न

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