Book Title: Jainendra Kahani 07
Author(s): Purvodaya Prakashan
Publisher: Purvodaya Prakashan

View full book text
Previous | Next

Page 193
________________ १८८ जैनेन्द्र की कहानियाँ [सातवीं भाग पर अपकार भी करता ही था, क्योंकि श्रद्धा तोड़ता था। पर इस बार इलाहाबाद से लौटकर वह जैसे खुद चक्कर में आ गया था। अब तक लेखनी के रास्ते व्यङ्ग और विनोद करने और नीति को अनीति की सीख देने में उसे कुछ कठिनाई नहीं हुई यी । काम मजे का था, शोहरत देता था और पैसा लाता था। पर पैसे पर वागीश नहीं रुक सका। इससे पैसा भी वागीश पर नहीं रुका। इस हाथ ले, उस हाथ दे, बस यह हाल था । लेनेवाला हाथ खाली रहे, उतने काल देनेवाले हाथ को भी आराम मिल जाता था। पर इधर से आया नहीं कि उधर गया नहीं। इस हालत में व्यसन बेचारा कोई उसे क्या लग सकता था। व्यसन है लत, लत लाचारी होती है। पर दोस्तों में बैठकर शराब चख ली थी। और रंगीनियों में किसी सङ्गी-साथी का साथ निबाह दिया यह दूसरी बात है। यह तो शिष्टता है। नहीं तो धर्म का दम्भ न हो जाय ? अतः बिगाड़ के रास्ते पर बड़े मज़े के साथ बिगड़ते मित्र के साथ वह कुछ कदम चल लेता था। यह वह अपना कर्त्तव्य मानता था। पर उसमें खुद बिगड़ने की शक्ति न थी। वह कुछ बना ही ऐसा था कि क्षण उस पर से गुजर जाते और यह उन पर से गुजर जाता था। दोनों एक-दूसरे को छूते या अटकाते नहीं थे । जो हुआ पार हुअा, उसका बन्धन कैसा ? यहाँ तक कि याद, पुनर्विचार, पश्चात्ताप आदि के अस्तित्व को बात उसे समझ न पाती थी। पर इलाहाबाद से आकर यह उसे क्या हुआ ? दुनिया को अब तक मजे से देखता था और उसमें मजे से विचरता था । सैरगाह और तमाशा नहीं तो दुनिया क्या है ? भांति-भाँति की चतुराइयाँ चमन को यहाँ गुलजार बना रही हैं। उन सब में निर्द्वन्द्व वह क्यों घूमता रहे ? कुछ क्यों न फांसे ? कोई सदाचार या दुराचार, नीति अथवा अनीति, स्वार्थ अथवा परोपकार, दृश्य अथवा वस्तु ? सब है और सबको मरना है। किधर चल रहा है ? महाशून्य की ओर । अन्त में तो सबको मरना है। बस हो गया तय कि मरना है ! अब उस मौत में कोई क्या देखे ? अन्त

Loading...

Page Navigation
1 ... 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217