Book Title: Jainendra Kahani 07
Author(s): Purvodaya Prakashan
Publisher: Purvodaya Prakashan

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Page 186
________________ ' चालीस रुपये १८१ सकू ँ तो सोचा कि इससे तो शर्म रखने के लिए जवाब टाल जाना ही बेहतर है । पत्र न लिखने के कसूर की वजह, सच मानिए, मेरी यह शर्म ही है ।" "वाह वाह ! यह आप क्या कहते हैं ! आप जो लिखेंगे कि एक चीज होगी । कहिए, क्या मँगाऊँ ? पेशगी रखिए, बाद में जब हो लिखते रहिएगा । सब प्राप ही का है । बोलिए, फरमाइये ! पर एक कहानी हर नम्बर में आप की हो, तब है !" वागीश ने मुह खोला, "बीस रुपये !" 'बीस ! तो वाह, यह लीजिए। ( घण्टी ) देखिए, हर महीने एक उम्दा कहानी हमको दीजिए और अखबार अपना समझिए । ( चपरासी श्राता है । ) देखो, चालीस रुपये लाने को कहो और रसीद भी बना वें । हाँ वागीशजी, श्राप का सामान यहीं क्यों न मँगवा लू 1 ? एक बार ग़रीब का भी घर सही, मोटर में दस मिनट में श्रा पहुँचेगा । ' वागीश ने माफ़ी माँगी और धन्यवाद दिया । रुपये और रसीद लेकर बाबू आया तो वागीश ने कहा, "देखिए, मैं इधर कुछ लिख नहीं रहा हूँ । लिखा ही नहीं जाता। इससे नहीं जानता कि आपको आपकी कहानी कब आयेगी। दो-तीन महीने भी लग सकते हैं ।" "तीन महीने ! बहुत बेहतर, तीन सही । लेकिन चौथे महीने में उम्मीद करूँ !" "जी हाँ, चौथे महीने कहानी न आने को तो कोई वजह नहीं दीखती । आप जानिए, एक मुद्दत से मश्क छूट गई है ।" "वाह वाह ! यह भी आप क्या कहते हैं ! आपकी कलम क्या मश्क की मोहताज है ? कलम उठाने की देर है कि फिर क्या है ।" रुपये मिल गए । एक आने के स्टाम्प की रसीद भी हो गई । मैनेजर ने कहा, "क्या श्राप जाएँगे ? जी नहीं, अभी नहीं। किसी हालत

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