Book Title: Jainendra Kahani 07
Author(s): Purvodaya Prakashan
Publisher: Purvodaya Prakashan

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Page 184
________________ चालीस रुपये १७६ ही चाहिए । लेकिन अब में चलू । फिर भी मन मार कुछ देर बैठा ही रहा । पर काम बँधा था और मैनेजर की मुश्किल मैनेजर ही जान सकता है । वागीश उस मुश्किल को न जानकर आखिर कुर्सी से खड़ा हुआ और लौट चला । इतने में और काम जल्दी-जल्दी निबटाकर मैनेजर लौट रहे थे । बरामदे में एक आदमी को देखकर कहा, “आप !" वागीश ने ठिठक कर कहा, "जी, मैं मैनेजर - साहब से मिलना चाहता था । " "फरमाइए ।" "ओह, श्राप वागीश हैं, लेकर मैनेजर वागीश को वागीश ने कहा, "मेरे नाम की चिट आपको मिली होगी ?" श्राइए श्राइए ! " कहकर हाथ में हाथ चले । वागीश रास्ते में उनके निजी दफ्तर में कुर्सी लेकर बैठने को हुआ कि मैनेजर ने कहा, "ओह, यहाँ नहीं । यहाँ शोर-गुल करीब है । दफ्तर जो है ! आइए, अन्दर चलिए ।" इस तरह निजी ड्राइङ्गरूम में ले गये और वहाँ खातिर तवाजो की, कहा, “ठहरे कहाँ हैं ? यह आप ही का घर था । क्या प्रा... वह ताँगा आपको है ? अरे भाई, देखना - ( घण्टी - चपरासी माता है | ) देखो, बाबू साहब का ताँगा खड़ा है । उसे हिसाब करके रवाना करो ! ओह, नहीं-नहीं, आप रहने दीजिए । क्या देना होगा ? डेढ़ घण्टा - तेरह आने । देखो तेरह प्राने छोटे बाबू से दिलाओ और सफर खर्च खाते डालो । वाउचर यहाँ लाने को कहो ( चपरासी चला जाता है ) हाँ, यह बतलाइए वागीश जी, कि आप हम से खफा क्यों हैं ? इतने खत गए, एक का जवाब नहीं । हम पत्रिका को ऊँची बनाना चाहते हैंश्राला स्टैण्डर्ड | आप जैसों के सहयोग से यह हो सकता है । पर आप तो ऐसे नाराज हैं कि खत का जवाब नहीं देते !"

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