________________
१५६ जैनेन्द्र की कहानियाँ [सातवा भाग] स्त्री-मात्र बच्ची है, अपने मन से खेले बिना उसका जी आधा रहता है। वह सदा बेचारी है, मुझे उस पर अनुकम्पा होती है । वे लड़कियाँ !मैं याद करता हूँ, और मेरा मन बिगड़ता-सा है ।
शिक्षा यदि विनीत न बनाए, तब भी क्या वह मिलनी ही चाहिए ? तब भी क्या वह शिक्षा है ? जो उलझन पैदा करे वह भी शिक्षा है ? जीवन सरल न बने, सुलझा न बने, व्यर्थता के प्राडम्बर का लालच रहे और बढ़े, तो वह शिक्षा है ?
इसी तरह की बहुत-सी बातें मैं सोच गया। मुझे मालूम हुआ, हम बढ़ नहीं रहे हैं, गिर रहे हैं । और इस तरह यह खुले-मुह और मुखरबुद्धि, शिक्षिता कहलाने वाली हमारी लड़कियाँ इसका प्रमाण हैं।
पर, कान्फरेन्स...
कान्फरेन्स हुई और भाषण हुए और प्रस्ताव हुए और मैं दंग रह गया। वक्ता लोग धारा-प्रवाह वक्तृता दे सकते थे, और यह बात तनिक उनकी अँगरेज़ी में हिचक न डाल पाती थी कि सुनने वालों में से प्राधे से अधिक लोग अँगरेज़ी नहीं समझते । और वे आधे से अधिक लोग भी मुग्ध और विश्वस्त थे कि बात मर्म की और ज्ञान की कही जा रही है, क्योंकि वह अँगरेज़ी में है । मै अँगरेज़ी जानता हूँ, लेकिन कान्फरेन्स में लोग भूलकर भी बात नहीं करते थे, भाषरण ही करते थे और मुझे ऐसा मालूम होता था कि उनके मुह में से पुस्तक शुद्ध और साफ बोल रही है, हृदय नहीं बोल रहा है।
वीरेन ने कहा, “पण्डितजी, सुनिए। बात तारीफ़ की यह कि बात बड़ी नहीं है, फिर भी बोला किस बड़प्पन के साथ जा सकता है।"
मैंने कहा, "यहां भीड़ बड़ी है । दम घुट पाया, चलो बाहर चलें, कुछ जल-पान करेंगे।"
और मै बाहर आ गया। वीरेन व्याख्यान सुनता रहा। बाहर आकर