Book Title: Jain Yug 1959
Author(s): Sohanlal M Kothari, Jayantilal R Shah
Publisher: Jain Shwetambar Conference

View full book text
Previous | Next

Page 483
________________ वंचनाकी प्रगति यह मानवजीवनकी अधोगति है श्री. र. मिश्र वंचनाकी प्रगति यह मानव जीवन की अधोगति है । वचनाको प्रवीणता कहना यह मानव जीवन का अपमान करना है । मानव जीवनकी सफलता या उत्कृष्टता उसकी बुद्धिमत्ता पर अवलंबित है बुद्धिमान वही है जिसके कुम्हार निर्दोष होनेके कारण ऐहिक या आमु कन्चनके कारण नहीं बनते बुद्धिमान मनुष्यका यह कर्तव्य नहीं है कि वह अपने व्यवहारोंको कलुषित रहने दे यह मानकर कि हमारी युक्ति दुर्गम है दूसरों के साथ वचनाका प्रयोग करे किसी की युक्ति दुध नहीं 1 दोती है। देश और काल निरवधिक पदार्थ हैं प्रकृतिके उदरमें बड़े बड़े बुद्धिमानोंका अस्तित्व संस्कार रूपसे विद्यमान है। ऐसा भी समय आता है कि वह दुर्बोधसे दुध विषयको सुबोध बना देता है आडम्बरका भण्डा फोड देता है पंचकको पंचक सिद्ध कर देता है उसकी कीर्तिको विपरीत रूप में परिणत कर देता है। समयको भी पराधीनता ने अपना दास बनाया है उसको यह अधिकार नहीं है कि किसीके अनुरोधसे किसी पदार्थ के संकोच - विकास में स्वतन्त्र रूपसे कारण बन सके किसी को यह सन्देह न होना चाहिए कि पंचनाप्रधान नीति के अज्ञान दशामें व्यवहार- दशाकी दुर्गति होगी । वंचनाप्रधान नीतिके ज्ञानका नाम वंचना नहीं है । वंचकोंसे बचने के लिए इस नीतिका ज्ञान आवश्यक है। वंचना के प्रयोग से इष्टको सिद्ध करना बेचना है। व्यवहारके अस्तव्यस्त होने जानेपर परमार्थका आश्रय लेना यह भी बंचनादी है। वचनासे सरलता से कार्यकी सिद्धी होती है “सबै रुपायैः फलमेव साध्यम् " तो वंचनाकी प्रगति निन्द्य क्यों मानी जाय ? इस प्रगल्भ सन्देहका उत्तर यह है कि वंचना की प्रगति से विश्वासका अस्तित्व नामशेष हो जाता है। प्रत्येक पतिको अन्यव्यक्ति मंचकही माइम होने . ૩૧ *************** लगते हैं। पदे पदे सन्देहको स्थान मिलने लगता है। चिन्ताका साम्राज्य अजेवरूपसे वृद्धिंगत हो जाता है। प्राणी मात्र चिंतित होनेके कारण दुःखी बन जाते हैं उनके लिए सुख दुर्लभ हो जाता है। मानव जीवनका कर्तव्य सदा के लिए विस्मृत हो जाता है। अतः यह माननाकि वंचनासे सरलतासे कार्यकी सिद्धि होती है सर्वोशमें भूल है जिसकी लतासे अपना स्वभाव अविश्वासु बने, माता पिता गुरु आचार्य पुत्र पत्नी आदिसे भी शंका बनी रहे, उस वंचनानीतिसे सुखकी आशा करना निजकी विक्षिप्तता बनता है । 'सर्वैरुपायै:' इस वचनका यह आशय है कि किसी या सर्ववैध उपायोंके द्वारा कार्यको सिद्ध करलेना चाहिए नकि अवैध नीतिसे । इस नीति वाक्यका लक्ष्य भी समष्टिहित के प्रश्नके उपस्थित होने पर कभी कभी वैधावैधका विचार विकट रूप धारण करता है- प्राकृतिक सामग्रियोंके अधिक २ विकसित होने पर भी आज जो प्राणि मात्र तामें पड़े हैं, बड़े वैज्ञानिक अपने जीवन को राक्षसी बना रहे हैं, देव तुल्य दर्शनीय राजे महाराजे भयसे घर से बाहर निकलने में डरते है, पण्डित महात्मा आदि धूर्त पाखण्डी कहे जाते हैं, पुत्रवत् पालनीय प्रथा भांतिभांति के उपायोंसे निर्धन बनाई जाती है, पापी स्वार्थ के उद्देश से शिष्यगण पारस्परिक निन्दा स्तुति के प्रचारक बनाए जाते हैं, दलालोंकी सहायतापर प्रसिद्धि अवलम्बित है, सत्यानृतका ज्ञान अलभ्य हो रहा है। इन सब अनयाँ का कारण एक मात्र वंचनाकी वृद्धि है। यह भी वंचनाहीका फल है कि उद्देश समान होने परमी धार्मिक बनता परस्पर द्वेष भावसे वर्तती है, रागद्वेष के परिणामसे निश्चिन्त हो जाती है. तत्तदर्शनोंके विषयोंसे नितान्त अपरिचित, ग्रन्थोंके नाम मात्र से भी अशत व्यक्ति दार्शनिक बनने का साहस करता है

Loading...

Page Navigation
1 ... 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524