Book Title: Jain Yoga ke Sat Granth Author(s): Dulahrajmuni Publisher: Jain Vishva Bharati View full book textPage 6
________________ आशीर्वचन योग शब्द बहुत व्यापक है। उसे जैनयोग, बौद्धयोग, पतंजलयोग-इस रूप में विभक्त नहीं किया जा सकता किन्तु अध्यात्म की जिस परंपरा ने योग की पद्धति में नए तत्त्वों का समावेश किया, वह पद्धति उस नाम से प्रख्यात हुई। जैन योग आत्मोपलब्धि के परिपार्श्व में विकसित हुआ है इसलिए उसकी स्वतंत्र अभिधा न्यायोचित है। योग साधना के प्रति विशिष्ट रुचि रखने वाले विद्वानों ने योग के विषय में अनेक ग्रंथ लिखे। प्रस्तुत पुस्तक में उनमें से सात ग्रन्थों का समावेश है। इस लघुकाय ग्रंथ में इतनी विशाल सामग्री है कि एक-एक ग्रंथ पर एक-एक बृहद्काय ग्रंथ का निर्माण किया जा सकता है। ___ मुनि दुलहराजजी हमारे धर्मसंघ के बहुश्रुत मुनि हैं। वे आगम साहित्य के अध्येता और अधिकृत लेखक हैं। उन्होंने आगम साहित्य के संपादन के साथ पार्श्ववर्ती अनेक ग्रंथों का संपादन और अनुवाद किया है। उनकी श्रमनिष्ठा और कार्यनिष्ठा अनुकरणीय है। आचार्य महाप्रज्ञ भिवानी २५-९-२००६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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