Book Title: Jain Tattva Sar Sangraha Satik
Author(s): Ratnashekharsuri
Publisher: Ranjanvijayji Jain Pustakalay

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Page 4
________________ प्रस्तावना महा महोपाध्याय श्री सूरचंद्र गरिण विरचित श्री जैन तत्त्व सार संग्रह नो गुर्जर भाषानुवाद आप सौनी समक्ष मूकतां मने अत्यन्त श्रानन्द थाय छे. आत्मा अनंत ज्ञानमय, अनंत दर्शनमय, अनंत चारित्रमय अने वीर्यमय शुद्ध स्फटिक जेवो निर्मल होवा छतां कर्म ना योगेज अनादि काल थी संसारी स्वरूप वालो छे. आत्मा साथै थयेल कर्म ना संयोग नो जो सर्वथा नाश थई जाय तो श्रात्मा शुद्ध स्वरूप ने पाम्या विना रहे नहीं । जीव अने कर्म तो संबंध ग्रनादि काल थी छे परन्तु प्रमुक वस्तु ना संयोग थी ते मुक्त थई शके छे. जीव ना प्रत्येक ग्रात्म प्रदेशे अनंत शुभाशुभ कर्मो रहेलां छे परण आपणे ते कर्मो जोई शकता नथी. एटले या पुस्तक ना वांचन थी जिज्ञासु भाई बहेनो ने आत्म संतोष थशे और विचार करवा माटे अमूल्य सामग्री मलशे । आ पुस्तक थी आप आत्मा ने कर्म नुं लक्षण, जीवो करतां कर्म अनंत छे, जीव कर्मों थी आवृत्त छे, कर्मो थी जीव शी रीते मुक्त थई शंके, जीवो नुं कर्म ग्रहण, जीवो नुं अदृश्य पणुं जीव अने कर्म तो संबंध, पर ब्रह्म नुं स्वरूप, कर्म थी जीव ने सुख - दुःख, ब्रह्म ने सिद्ध, निगोद ना जीवो ने तेमनी दृश्यता, निगोद ना जीवो नुं कर्म बंधन, सुख - दुःख नुं कारण कर्म, श्रदृष्ट स्वर्ग नुं प्रमाणपणुं, प्रभु प्रतिमा पूजन थी पुण्य, मुक्ति नो सर्व दर्शनानुसारी मार्ग ANG

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