Book Title: Jain Tattva Mimansa
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 13
________________ जैन धर्म एवं दर्शन-155 जैन-तत्त्वमीमांसा-7 वैशेषिक दर्शन में नौ द्रव्य माने गए थे, वहाँ जैनों ने पंचास्तिकाय के साथ काल को जोड़कर मात्र छ: द्रव्य ही स्वीकार किए। इनमें से भी जीव (आत्मा) आकाश और काल-ये तीन द्रव्य दोनों ही परम्पराओं में स्वीकृत रहे। पंचमहाभूतों, जिन्हें वैशेषिक-दर्शन में द्रव्य माना गया है, में आकाश को छोड़कर शेष पृथ्वी, अप (जल), तेज (अग्नि) और मरुत (वायु)- इन चार द्रव्यों को जैनों ने स्वतंत्र द्रव्य न मानकर अजीव-द्रव्य के ही भेद माना है। दिक और मन- इन दो द्रव्यों को जैनों ने स्वीकार नहीं किया, इनके स्थान पर उन्होंने पाँच अस्तिकायों में से धर्म, अधर्म और पुद्गलऐसे अन्य तीन द्रव्य निश्चित किए। ज्ञातव्य है कि जहाँ अन्य परम्पराओं में पृथ्वी, अप्, वायु और अग्नि- इन चारों को जड़ माना गया, वहाँ जैनों ने इन्हें चेतन माना है, यद्यपि इस सम्बन्ध में मेरा दृष्टिकोण थोड़ा भिन्न है / मेरा मानना है कि ये चारों जब तक किसी जीव के काय (शरीर) रूप में हैं, तब तक वे सजीव होते हैं। इस प्रकार, जैन-दर्शन की षद्रव्य की अवधारणा अपने-आप में मौलिक है। अन्य दर्शन परम्परा से उसका आंशिक साम्य ही देखा जाता है। इसका मूल कारण यह है कि उन्होंने इस अवधारणा का विकास अपनी मौलिक पंचास्तिकाय की अवधारणा से किया है। (iii) नवतत्त्व की अवधारणा ____ पंचास्तिकाय और षट्जीवनिकाय की अवधारणा के समान ही नवतत्त्वों की अवधारणा भी जैन परम्परा की अपनी मौलिक एवं प्राचीनतम अवधारणा है। इस अवधारणा के मूल बीज आचारांग जैसे प्राचीनतम आगम में भी मिलते हैं। उसमें सुकृत, दुष्कृत, कल्याण, पाप, साधु, असाधु, सिद्धि (मोक्ष), असिद्धि (बंधन) आदि के अस्तित्व को मानने वाली ऐकान्तिक विचारधाराओं के उल्लेख हैं (1/7/1/2000) / इस उल्लेख में आस्रव-संवर, पुण्य-पाप तथा बंधन–मुक्ति के निर्देश हैं। वैसे, आचारांगसूत्र में जीव-अजीव, पुण्य-पाप, आस्रव-संवर, बंध, निर्जरा और मोक्ष- ऐसे नवों तत्त्वों के उल्लेख प्रकीर्ण रूप से तो मिलते हैं, किन्तु एक साथ ये नौ तत्त्व हैं-ऐसा उल्लेख नहीं है। ..सूत्रकृतांग में भी अस्ति और नास्ति की कोटियों की चर्चा हुई है।

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