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( २२ ) के विपरीत होने पर सुखकारी स्पर्श होते रहते हैं। जैसे कि-शीत ऋतु के होने पर अत्यन्त शीत का न होना इसी प्रकार उष्ण ऋतु के आ जाने पर अत्यन्त उप्णता न पड़ना; अपितु जिस प्रकार स्पर्श सुख रूप प्रकट होते रहे ऋतु उसी प्रकार परिणत होती रहती है। कारण कि-श्रीभगवान् के पुण्यौघ के माहात्म्य से सदैव काल सुख रूप ही होकर परिणत होता रहता है।
१६ सीयलेणं सुहफासेणं सुरभिणा मारुएणं जोयण परिमंडलं सन्वओ ससंतो संपमज्जिज्जइ
जिस स्थान पर श्रीभगवान् विराजमान हो जाते हैं, वहां पर शीतल सुख रूप स्पर्श द्वारा और सुरभि मारुत से एक योजन प्रमाण क्षेत्र मंडल शुद्ध हो जाता है अर्थात् योजन प्रमाण क्षेत्र पवित्र वायु द्वारा सर्वथा सम्प्रमार्जित हो जाता है। जिस कारण से धर्म-कथा के श्रोताओं को बैठने में कोई भी खेद नहीं होता।
१७ जुत्त फुसिएणं मेहेणय नि हयरयरेणू पंकिज्जइ ।
वायु द्वारा जो रज आकाश में विस्तृत हो गई थी वह उचित जलविन्दु के पात से उपशांत हो जाती है अर्थात् वायु के हो जाने के पश्चात् फिर स्तोक २ मेघ की बूंदों द्वारा रज उपशांत हो जाती है। जिस से वह स्थान परम रमणीय हो जाता है।
१८ जलथलय भासुर पभूतेणं विंटठाइणा दसद्ध वएणणं कुसुमेणं जागुस्सेहप्पमाणमित्ते पुप्फोवयारे किज्जा।
जलज और स्थलग भासुर रूप ऊर्द्ध मुख पांच वर्णों के पुष्पों का जानु प्रमाण पुष्पोपचार हो जाता है अर्थात् उस योजन प्रमाण क्षेत्र में दीप्ति वाले पुष्पों का संग्रह दीख पड़ता है, और वे पुष्प इस प्रकार से दीख पड़ते हैं जैसे कि-जलज और स्थलज होते है।
१६ अमगुण्णाणं सद्दफरिसरसरूवगंधाणं अवकरिसो भवइ ।
अमनोज्ञ शब्द स्पर्श रस रूप और गंध इनका अपकर्ष होता है अर्थात् श्रीभगवान् के समवशरण में अप्रिय शब्द रूप गंध रस और स्पर्श यह नहीं होते। क्योंकि-इनका विशेष होना पुण्यापर्कर्ष माना जाता है, और श्रीभगवान् पुण्य के परम पवित्र स्थान हैं।
२० मणुगणाणं सद्दफरिसरसरूवगंधाणं पाउब्भावो भवइ । '
परम रमणीय शब्द, स्पर्श, रस,रूप और गंध यह प्रकट हो जाते हैं अर्थात् उनके समीप अशुभ पदार्थ नहीं रहते, किन्तु यावन्मात्र शुभ पदार्थ हैं, वे ही