Book Title: Jain Tattva Kalika Vikas Purvarddha
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 319
________________ ( २६५ ) योधिकज्ञान परिणाम युक्त कहा जाता है । यद्यपि आत्माज्ञानरूप ही है तथापि ज्ञानावरणीय कर्म के प्रभाव से पांच ज्ञानों में परिणत होजाता है। इन ज्ञानों का पूर्ण स्वरूप नंदी सिद्धान्त से जानना चाहिए । संक्षेप से यहां वर्णन किया जाता है। १ मतिज्ञान-बुद्धिपूर्वक पदार्थों का अनुभव करना अर्थात् मतिज्ञान से पदार्थों का ज्ञान प्राप्त करना। .. . २ सुनकर पदार्थों का मतिपूर्वक विचार करना । . ' ' __ ३ अपने ज्ञानद्वारा रूपी पदार्थों को जानना । इस ज्ञान को अवधि ज्ञान कहते हैं । इस ज्ञान के अनेक भेद प्रतिपादन किये गए है,।। __ '४ मनःपर्यवज्ञान संज्ञी (मन वाले) जीवों के जो मन के पर्याय हैं उनको जानलेना है। ५ केवलज्ञान उस का नाम है जिसके द्वारा सर्व द्रव्य और पर्यायों को हस्तामलकवत् देखा जाए । इसा ज्ञान वाले को सर्वज्ञ और सर्वदर्शी कहा जाता है। इन्हीं ज्ञानो में जीव का परिणत होना माना गया है। प्रथम चार ज्ञान छमस्थ के और पंचम ज्ञान सर्वज्ञ का कहा जाता है। अव ज्ञान के प्रतिपक्ष अज्ञान परिणाम विषय कहते हैं, अणाणपरिणामेणं भंते कतिविधे प. १ गोयमा ! तिविहे प. तंजहा मइअणाणपरिणामे सुयप्रणाणपरिणामे विभंगणाणपरिणामे । भावार्थ हे भगवन् ! अमान परिणाम कितने प्रकार से प्रतिपादन किया गया है ? हे गौतम ! अज्ञान परिणाम तीन प्रकार से वर्णन किया गया है । जैसे कि-मतिअज्ञानपरिणाम, , श्रुतअज्ञानपरिणाम, विभंगज्ञानपरिणाम । सदज्ञान से रहित पदार्थो का स्वरूप चिंतन करना अर्थात् जिस प्रकार द्रव्यो का स्वरूप श्री भगवान् ने प्रतिपादन किया है उससे विपरीत पदार्थों का स्वरूप मति द्वारा अनुभव करना उसी का नाम मति अज्ञान परिणाम है। यद्यपि व्यवहार पक्ष में मति ज्ञान और मति अज्ञान का विशेष भेद प्रतीत नहीं होता, परन्तु द्रव्यों के भेदों के विषय में ज्ञान और अज्ञान की परीक्षा पूर्णतया सहज में ही हो जाती है। जिस प्रकार मति अज्ञान पदार्थों के सदरूप को असद् रूप से अनुभव करता है ठीक उसी प्रकार श्रुत अज्ञान के विषय में जानना चाहिए । मिथ्या श्रुत द्वारा ही लोक में अज्ञान अपना अंधकार विस्तृत करता है जिससे प्राणी उन्मार्गगामी बनते हैं। तृतीय अवधिज्ञान का प्रतिपक्ष विभंगशान है, जिस का यह मन्तव्य है कि जो निज उपयोग द्वारा (योग द्वारा) पदार्थों का स्वरूप अनुभव करना है यदि वह स्वरूप अयथार्थता से अनुभव करने में आवे उस को विभंग शान कहते है।

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