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(६६ ) उस से अनेक भव्यात्माओं को अपना कल्याण करने का सौभाग्य प्राप्त हो जाता है। जिस प्रकार महाराज प्रदेशी के किये हुए प्रश्नों का समाधान श्री केशीकुमार श्रमण ने युक्ति पूर्वक किया है और उन प्रश्नोत्तरों को देख कर जीवतत्व की परम आस्तिकता सिद्ध हो जाती है, एवं वद्ध और मुक्त का भी भली भांति ज्ञान हो जाता है। व्याख्याप्रज्ञप्ति में निर्ग्रन्थी पुत्र श्रादि श्रमणों के प्रश्नोत्तर को पढ़ कर ' आसन्नलब्धप्रतिभ" का शीघ्र पता लग जाता है। अतएव सिद्ध हुआ कि-आचार्य में यह गुण अवश्य होना चाहिए, जिस के द्वारा संघ-रक्षा और श्रीश्रमण भगवान् महावीर स्वामी के प्रतिपादन किये हुए सत्य सिद्धान्त का अतीव प्रचार हो, जिस से भव्य आत्माएं अपना कल्याण करने में समर्थ हो सके।
१६ नानाविधदेशभापाश-श्राचार्य महाराज को नाना प्रकार के देशों की भापात्रों का भी ज्ञाता होना चाहिए, ताकि वह प्रत्येक देश में जाकर वहीं की भाषा में भगवदुक्त धर्म का प्रचार भली भांति कर सकें।।
२० ज्ञानाचारयुक्त ज्ञान के आचरण से युक्त अर्थात् मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यव, और केवल यथासंभव इन पांचों ज्ञानों से संयुक्त होना चाहिए, ताकि ज्ञान की आराधना हो सके और भव्य आत्माएं श्रुताध्ययन मे लग सकें। उदात्त अनुदात्त और स्वरित, इत्यादि घोप स्वरों की शुद्धता पूर्वक ज्ञान-वृद्धि की चेष्टा करता रहे, क्योंकि-स्वाध्याय करने से ज्ञानावरणीय कर्म क्षय हो जाता है।
२१ दर्शनाचारयुक्त-दर्शन के आचार से युक्त अर्थात् सम्यक्त्व में पूर्णतया दृढ़ता तथा देव,गुरु और धर्म में सर्वथा प्रीति तथा जीवादिका यथार्थ ज्ञान हो जाने से दर्शनाचार की शुद्धि कही जाती है । जीवादि का यथार्थ ज्ञान होने पर उस में फिर शङ्कादि न करनी चाहिए, तभी श्रात्मा दर्शनाचार से युक्त हो सकता है, क्योंकि-शङ्कादि के हो जाने से फिर दर्शनाचार की शुद्धि नहीं रह सकती। जव तक दृढ़ता में किसी भीप्रकार का सन्देह उत्पन्न नहीं होता तव तक दर्शनाचार की विशुद्धि की सव क्रियाएं की जा सकती हैं। यदि यहां यह शङ्का की जाय कि-जव दृढ़ता ही फल श्रेष्ठ है तव प्रत्येक प्राणी स्वमत की दृढ़ता में निपुण हो रहा है तो क्या उनको दर्शनाचारयुक्त कहा जा सकता है ? इस शंका का समाधान इस प्रकार है कि-जव पदार्थों का यथार्थ ज्ञान हो गया है तब उस यथार्थ ज्ञान द्वारा देखे हुए पदार्थों में यथार्थ ही निश्चय है, उसी को सम्यग् दर्शन कहा जाता है। किन्तु जव अयथार्थ ज्ञान होगा तो उस में अतद्रूप ही निश्चय होगा. उसको मिथ्यादर्शन कहा जाता है । अतएव सिद्धान्त यह निकला कि-यथार्थ निश्चय का नाम सम्यग्