________________
( १३३ ) आवश्यक में गुरु और उसके गुण तथा शिष्य की भक्ति का दिग्दर्शन कराया गया है।
४ प्रतिक्रमणावश्यक-अपने ग्रहण किये हुए व्रतों में जो कोई अतिचार लगगया हो तो उससे पीछे हटने की चेष्टा करना तथा पीछे हटना-इसे - प्रतिक्रमणावश्यक कहते है।
__५ कायोत्सर्गावश्यक-शान, दर्शन और चारित्र की शुद्धि के लिये कायोत्सर्ग करना अर्थात् ध्यानस्थ हो जाना ।
प्रत्याख्यानावश्यक-अतिचारोंकी शुद्धि वा आत्मशुद्धि के लिये प्रत्याख्यान (किसी पदार्थ का त्याग) करना । यह छै क्रियाएँ अवश्य करणीय है इसी लिये इन्हें षडावश्यक कहते हैं । द्रव्य और भाव रूप से यह छै प्रतिदिन अवश्यमेव करने चाहिएं।
जब पडावश्यक शुद्धरूप से पालन किये जाएं तव फिर अाठ ही समिति और गुप्तियें जो प्रवचनमातृ हैं उन्हें अवश्यमेव क्रियारूप में लाना चाहिए अर्थात् आठ प्रवचन माता में नित्य ही प्रवृत्ति करनी चाहिए । जैसेकि-५ समिति और तीन गुप्ति । इनका विवरण संक्षेप से नीचे किया जाता है यथा–१ ईर्यासमिति-सम्यक्तया जिससे चारित्र की पालना की जावे उसे समिति कहते है । सो "ईरणं ईर्या काय चेष्टा इत्यर्थः तस्या समिति शुभोपयोगः" अर्थात् चलते हुए उपयोगपूर्वक चलना चाहिए जैसेकि-निज शरीर प्रमाण भूमि को आगे देखकर चलना चाहिए तथा श्रासन पर बैठते समय वा धर्मोंपकरण पहिरते समय विशेष उपयोग होना चाहिए । इसी प्रकार शयन करते समय भी पादपसारणादि क्रियाएं कुर्कुटवत् होनी चाहिएं। सारांश इतना ही है कि यावन्मात्र चलना आदि कार्य हैं वे सव यत्नपूर्वक ही होने चाहिएं । २ भाषासमिति-भाषण करते समय क्रोध, मान, माया और लोभ तथा हास्यादि के वशीभूत होकर कदापि भापण न करना चाहिए । अपितु मधुर और स्तोक अक्षरों से युक्त प्राणीमात्रके लिए हितकर वचनों का प्रयोग करे एवं जिस के भापण करने से किसी प्राणी को हानि पहुंचती हो अथवा भाषण से कोई सारांश न निकलता हो ऐसे व्यर्थ और विकथारूप भाषणों का प्रयोग न करे । एषणासमिति-शुद्ध और निर्दोश आहार पानी की गवेषणा करनी चाहिए अपरंच जो अन्न पानी सदोप अर्थात् साधुवृत्ति के अनुकूल नहीं है उसे कदापि ग्रहण न करे । आहार पानी के शास्त्रकारों ने ४२ दोष प्रतिपादन किये । है जैसेकि सोलह प्रकार के उद्गम दोष होते हैं जो साधु को दातार के द्वारा लगते हैं अतएव साधु को भिक्षाचरी के समय विशेष सावधान रहना चाहिए जिससे उक्त दोपों में से कोई दोप न लगसके जैसेकि-,