Book Title: Jain Tattva Kalika Vikas Purvarddha
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

View full book text
Previous | Next

Page 296
________________ ( २७२ ) हंता अत्थि ! कहणं भंते ! जीवाणं पावाकम्मा पावफलविवागर्सजुत्ता कजंति ! कालोदाई से जहा नामए केइ पुरिसे मणुन्न थालीपागसुद्धं अठारस बंजणाउलं विससंमिस्सं भोयर्ण भुजेज्जा तस्स णं भोयणस्स अवाए भद्दए भवति तो पच्छा परिणममाणे परिणममाणे दुरूवत्ताए दुगंधत्ताए जहा महासवए जाव भुज्जो २ परिणमति एवामेव कालोदाई जीवाणं पाणाइवाए जाव मिच्छादंसणसल्ले तस्सणं अवाए भद्दए भवइ तो पच्छा विपरिणममाणे २ दुरूवत्ताए जाव भुज्जो परिणमति एवं खलु कालोदाई जीवाणं पावाकम्मा पावफलविवाग, जाव कज्जति ।। ___ भग० श० ७ उदृश १०॥ भावार्थ-कालोदायी नामक परिव्राजक-जो श्री भगवान् महावीर स्वार्मी के साथ प्रश्नोत्तर करके दीक्षित हो चुका था श्री भगवान् से पूछने लगा कि हे भगवन् ! क्या पाप कर्म जीवों को पाप फल विपाक से युक्त करते हैं ? इस प्रश्न के उत्तर में श्री भगवान् ने प्रतिपादन किया कि-कालोदायिन् ! पाप कर्म जीवों को पाप फल से युक्त कर देते हैं। जव इस प्रकार श्रीभगवान् ने उत्तर दिया तव कालोदायी ने फिर प्रश्न किया कि-हे भगवन् ! किस प्रकार से पाप कर्म जीवों को पाप फल से युक्त करते हैं ? उत्तर में श्रीभगवान् कहने लगे कि हे कालोदायिन् ! अत्यन्त मनोन (प्रिय ), स्थालीपाक शुद्ध, अर्थात् शुद्ध और पवित्र अष्टादश प्रकार के व्यंजन शालन (शकाादि) नक्रादि से युक्त और अतिसुंदर भोजन में विप संमिश्रित (मिलाकर) कर कोई पुरुष उसे खावे, तव वह भोजन पहले खाते समय तो प्रिय और मनोहर लगता है किन्तु पश्चात् परिणाम भाव को प्राप्त होता हुआ शरीर के दुरूप भाव को और दुर्गन्धता को तथा शरीर के सर्व अवयवों को बिगाड़ता हुआ जीवितव्य से रहित कर देता है । अपितु वह विष संमिश्रित भोजन खाते समय कोई हानि उत्पन्न नहीं करता। उसी प्रकार हे कालोदायिन् ! जीवों को प्राणातिपात, असत्य, चोरी, मैथुन. परिग्रह, क्रोध. मान, माया, लोभ. राग, द्वेष, कलह, अभ्याख्यान, पैशुन्य भाव, परपरिवाद, माया, मृया, रति, अरति, मिथ्यादर्शनशल्य ये कर्म करते हुए तो प्रिय लगते हैं किन्तु विपरिणमन होते हुए जीवों को सर्व प्रकार से दु:खित करते हैं अर्थात् शारीरिक और मानसिक दुःखों से पीड़ित करते हैं। इस प्रकार हे कालोदायिन् ! जीवों को पापकर्म पापफल विपाक से युक्त करते हैं । इस प्रश्नोत्तर का सारांश इतना ही है कि--जिस प्रकार प्रिय भोजन में भक्षण किया हुआ

Loading...

Page Navigation
1 ... 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335