Book Title: Jain Tattva Kalika Vikas Purvarddha
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 314
________________ ( २६० ) प्रज्ञापन सूत्र में अनेक भेद वर्णन किये गए हैं। सो जीव जव शुभाशुभ कर्मों द्वारा मनुण्य गति में जाता है तब उसका मनुष्यगतिपरिणाम कहा जाता है। इस वात का भी विशेष ध्यान रखना चाहिए कि-पूर्णतया सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यग् चारित्र मनुष्य ही पालन कर सकता है नतु अन्य। इस प्रकार मनुष्यगति परिणाम के अनन्तर देवगति. परिणाम का वर्णन किया गया है। शास्त्रों में चार प्रकार के देवों का वर्णन किया है। उनमे जो देव अधोलोक में निवास करते हैं उन्हें भवनवासी कहा जाता है। वे देव दश जाति के प्रतिपादन किये गए हैं। ७ करोड़ और ७२ लाखं, इनके भवन वर्णन किये गए हैं। वे भवन संख्यात वा असंख्यात योजनों के आयाम (लम्बे) विष्कम्भ (चौड़े) वाले कथन किये गए हैं । इनका सविस्तर स्वरूप प्रज्ञापन सूत्र के द्वितीय पद से जानना चाहिए। उस स्थान पर उक्त देवों का वर्णन वड़े विस्तार से प्रतिपादन किया गया है । तदनन्तर वाणमन्तर देवों का सविस्तर स्वरूप वर्णन किया गया है। ये देव षोडश जाति के वर्णन किये गए हैं जैसेकि-पिशाच, भूत, यक्ष, राक्षस (श) इत्यादि । इनके तिर्यग् लोक में असंख्यात नगर हैं । भूमि के नीचे वा द्वीपसमुद्रों में इनकी असंख्यात राजधानियां है । ये देव कंतूहल प्रिय प्रतिपादन किये गए हैं और न्यून से न्यून इनकी श्रायु दश हजार वर्ष की होती है । यदि उत्कृष्ट आयु होजाय तो एक 'पल्योपम के प्रमाण में रहती है। आगे ज्योतिषी देवों का भी वर्णन किया गया है । चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और तारा इस प्रकार पांच प्रकार के ज्योतिषी देव प्रतिपादन किये गए हैं। आकाश में असंख्यात इनके विमान है परंच मनुष्य क्षेत्र में इनके विमान, चर और मनुष्य क्षेत्र के वाहिर स्थिर कथन किये गए हैं। स्मृति रहे कि जो मनुष्यक्षेत्र के मध्यवर्ती उक्त ज्योतिषमंडल है उसी के कारण से समय विभाग किया जाता है तथा दिन मानादि का परिमाण वांधा गया है । इनके विवरण करने वाले चन्द्र प्राप्ति और सूर्यप्रनप्ति इत्यादि अनेक जैनग्रंथ है । इनके ऊपर असंख्यात योजनों के अन्तर पर २६ स्वर्ग हैं, जिनमें १२ स्वर्गों की संज्ञा कल्प देवलोक है । इनके दश इन्द्र और प्रत्येक इन्द्र की तीन २ परिषत् हैं । उनमें न्याय सम्बन्धी विविध प्रकार से विचार किया जाता है । प्रज्ञापन वा जीवाभिगमादि सूत्रों के पढ़ने से यह भली भांति सिद्ध हो जाता है कि देवों की राज्यनीति अवश्य ही न्यायकर्ताओं के लिये अनुकरणीय है । परन्तु जो देव १२ वें स्वर्ग के ऊपर के हैं उनकी अहमिन्द्र संज्ञा है । इन वैमानिक देवों के लाखों विमान संख्यात वा असंख्यात योजनों के आयाम (लंबे) विष्कम्भ (चौड़े) वाले हैं । उक्त सूत्रों में इन देवों का बड़े विस्तार से वर्णन किया गया है, सो जब जीव देव गति में शुभ कमों द्वारा

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