Book Title: Jain Tattva Kalika Vikas Purvarddha
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 312
________________ ( २८८ ) जव कषाय और लेश्यापरिणामों की सिद्धि भली भांति होगई तव लेश्यापरिणामी आत्मा योगपारणामवाला होता है अतएव योग परिणाम का वर्णन किया गया है। योग परिणामानन्तर उपयोग परिणाम का वर्णन है। इसका कारण यह है कि योग परिणाम वाले आत्मा उपयोग परिणाम से ही युक्त होते हैं । सो उपयोग ज्ञानपरिणाम में होता है अतः ज्ञानपरिणाम का उल्लेख किया गया है। स्मृति रहे कि-ज्ञान और अज्ञान इस प्रकार जो दो भेद प्रतिपादन किये गए हैं सो उपयोग दोनों में पाया जाता है । ज्ञान के अनन्तर दर्शन होता है अतएव श्रात्मा दर्शनपरिणाम परिणत हो जाता है । जिस प्रकार ज्ञान और अज्ञान दो प्रकार से वर्णन किया गया है ठीक उसी प्रकार दर्शन के भी सम्यग्दर्शन और मिथ्यादर्शन तथा मिश्रितदर्शन दो भेद है . जब सम्यग्दर्शनादि द्वारा पदार्थों का ठीक स्वरूप जान लिया गया तब कर्मक्षय करने के भाव उत्पन्न हो जाते हैं अतएव चारित्रपरिणाम का वर्णन किया गया है। जब चारित्रपरिणाम में जीव प्रविष्ट होजाता है तव वह फिर अवेदी भाव को प्राप्त होता है अतएव वेदपरिणाम का उल्लेख किया गया है। इस प्रकार सूत्रकर्ता ने जीव के दश परिणामों का परिणत होना प्रतिपादन किया है। अवसूत्र कर्ता गति आदि के परिणामोंका उपभेदों के साथ वर्णन करते हुए कहते हैं जैसेकि गतिपरिणामेणं भंते कतिविधे प. ? गोयमा ! चउविहे प. तं. नरयगतिपरिणामे तिरियगतिपरिणामे मणुयगतिपरिणामे देवगतिपरिणामे । भावार्थ-हे भगवन् ! गतिपरिणाम कितने प्रकार से प्रतिपादन किया गयाहै ? हे गौतम ! गतिपारणाम चार प्रकार से कथन किया गया है जैसेकिनरक गति परिणाम, तिर्यगतिपरिणाम, मनुजगतिपरिणाम, देवगतिपरिणाम, इनका सारांश यह है कि-जव जीध पाप कर्मों द्वारा मरकर नरक गति में जाता है तब वह जीव नरक गति परिणाम वाला कहा जाता है और रत्नप्रभा, शर्करप्रभा, वालुप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमःप्रभा, तमस्तमाप्रभा, इस प्रकार सात नरक चतलाए गये हैं। इनमें असंख्यात नारकीय जीव निवास करते हैं। वे नाना प्रकार के शारीरिक और मानसिक दुःखों का अनुभव करते रहते हैं । संख्यात वर्षों वा असंख्यात काल की आयु को भोगते है । केवल मनुष्य वा तिर्यग् जीव ही मरकर नरक में जाते हैं। मध्यलोक के नीचे सात नरकों के स्थान प्रतिपादन किये गए हैं, जैसेकि-प्रथम आकाश उस के ऊपर तनुवात (पतली वायु ) फिर उसके ऊपर घनवात (कठिन वायु) उसके ऊपर घनो

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