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( २१२ ) सहिमक्खणया दुप्पउलियो सहिभक्खणया तुच्छोसहिभक्खणया ॥
___उपासकदशाङ्गसू.अ. ॥१॥ भावार्थ-सातवें गुणव्रत में कर्म और भोजन का अधिकार वर्णित है। सो कर्मों का अधिकार तो पूर्व लिखा जा चुका है। किन्तु भोजन के पांच अतिचार निम्न प्रकार से कथन किये गए हैं जैसेकि
१ सचित्ताहार-गृहस्थ के परिमाण से बाहिर सचित्त वनस्पति आदि का आहार न करना चाहिए तथा मिश्र पदार्थों को अचित्त जान कर न खाना चाहिए।
२ सचित्तप्रतिबद्धाहार-सचित्त के प्रति त्याग होने से यदि सचित्त के प्रतिवद्ध से खाना खाया जावे तो भी अतिचार होता है। जैसेकि-वृक्ष से उतार कर गूंद खाना वा सचित्त पत्तों पर कंदोई की दुकान पर से नाना प्रकार के पदार्थो का भक्षण करना इत्यादि ।
३ अपक्काहार-जो आहारादि अग्निसंस्कार से परिपक्व न हुत्रा हो उन का तथा औषध आदि मिश्र पदार्थों का आहार करना।
४दुपक्काहार-अग्निसंस्कार द्वारा जो आहार पूर्ण पक्क दशा को प्राप्त न हुआ हो, जैसे लोग चणक और मक्की की छल्लिएं आदि को अग्नि में परिपक्क करते हैं, किन्तु वे पूर्णतया परिपक्व नहीं होते सो ऐसे पदार्थों का भक्षण न करना चाहिए । इस प्रकार सर्व धान्यों के विपय जानना चाहिए।
__५ तुच्छौषधिभक्षण अतिचार-जिस पदार्थ के खाने से हिंसा विशेप होती हो किन्तु उदर-पूर्ति न हो सके उस का श्राहार करना वर्जित है । जैसेसकोमल वनस्पति तथा खसखस का आहार ।
उक्त पांचों अतिचारों को छोड़कर उक्त गुणव्रत को शुद्धतापूर्वक पालन करना चाहिए।
सातवें उपभोग गुणव्रत के पश्चात् तृतीय गुणवत अनर्थदंड विरमण है इस का स्वरूप शास्त्रकारों ने इस प्रकार प्रतिपादन किया है। यद्यपि हिंसादि कर्म सर्व ही पापोपार्जन के हेतु हैं, परन्तु उनमें अर्थ और अनर्थ इस प्रकार दो भेद किये जाते हैं। जो अनर्थ पाप हैं उन्हें गृहस्थ कदापि न करे। क्योंकि-जव उन कर्मों के.करने से किसी भी अभीष्ट-सिद्धि.की प्राप्ति नहीं होती तो भला फिर वे कर्म क्यों किये जाएँ ? हाँ-अपने प्रयोजन की सिद्धि के लिये, जो पाप कर्म किया जाता है उसको अर्थदंड कहते हैं।
गृहस्थावास में रहते हुए प्राणी को अर्थदंड का परित्याग तो हो सकता ही नहीं किन्तु उसे अनर्थदंड कदापि न करना चाहिए । जैसे-कल्पना करोकि-कोई गृहस्थ एक बड़े सुंदर राजमार्ग पर चला जा रहा है जो अत्यन्त