Book Title: Jain Swadhyaya Mala
Author(s): Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh Sailana MP
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 364
________________ जैन स्वाध्यायमाला ३४७ वीर सर्वसुरासुरेन्द्र महितो, वीर बुधा. संश्रिता । वीरेणाभिहत स्वकर्म निचयो, वीरा य नित्य नमः ।। वीरात्तीर्थमिद प्रवृत्तमतुल वीरस्य घोरं तपो।। वीरे श्री धति कीति कान्तिनिचय ,श्री वीर | भद्रदिश ।। ॥ मेरी भावना॥ जिसने राग द्वेष कामादिक, जीते सब जग जान लिया। सब जीवो को मोक्ष मार्ग का, निष्पह हो उपदेश दिया । बद्ध वीर जिन हरि हर ब्रह्मा, या उसको स्वाधीन कहो। भक्ति भाव से प्रेरित हो, यह चित्त उसी मे लीन रहो।। विषयो की आशा नही जिनके, साम्य भाव धन रखते हैं। निज पर के हित साधन मे जो, निशिदिन तत्पर रहते हैं। स्वार्थ त्याग को कठिन तपस्या, बिना खेद जो करते है। ऐसे ज्ञानी साधु जगत के, दुख समूह को हरते है। रहे सदा सत्संग उन्ही का, ध्यान उन्ही का नित्य रहे । उन्ही जैसी चर्या मे यह, चित्त सदा अनुरक्त रहे । नही सताऊँ किसी जीव को, झूठ कभी नही कहा करूँ । परधन वनिता पर न लुभाऊँ, संतोषामृत पिया करूँ ।। अहकार का भाव न रक्खू , नही किसी पर क्रोध करूँ। देख दूसरो की बढ़ती को, कभी न ईा भाव धरूँ।। रहे भावना ऐसी मेरी, सरल सत्य व्यवहार करूँ। बने जहाँ तक इस जीवन मे, औरो का उपकार करूँ ।। मैत्री भाव जगत् मे मेरा, सब जीवो से नित्त्य रहे।

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