Book Title: Jain Swadhyaya Mala
Author(s): Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh Sailana MP
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 390
________________ जैन स्वाध्यायमाला ३७३ दशवां - मनपसंद वस्तु से स्नेह किया ।। १० । ग्यारहवा द्वेप - अपसद वस्तु देख कर उस पर द्वेष किया | ११ | बारहवा कलह-अप्रशस्त ( खराब ) वचन बोल कर क्लेश उत्पन्न किया । १२ । तेरहवा अभ्याख्यान - झूठा कलक दिया | १३ | चौदहवा पैशून्य-दूसरे की चुगली की | १४ | पंद्रहवा परपरिवाद - दूसरे का अवगुणवाद ( श्रवर्णवाद ) बोला |१५| सोलहवा रति श्ररति- पाच इंद्रिय के २३ विषय और २४० विकार हैं । इनमे मनपसंद पर राग किया और पसंद पर द्वेप किया, तथा संयम तप आदि पर अरति की, तथा आरभादिक असयम और प्रमाद मे रति भाव किया । १६ । सत्रहवा माया मृपावाद - कपट सहित झूठ बोला |१७| अठारहवा मिथ्यादर्शनशल्य - श्री जिनेश्वरदेव के मार्ग में शका कखा आदि विपरीत श्रद्धा परूपणा की । १८ । * इस प्रकार अठारह पाप का द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से, भाव से, जानते, अजानते, मन वचन और काया से सेवन किया, कराया और अनुमोदा, दीया वा राम्रो वा एगो वा परिसागो वा सुत्ते वा जागरमाणे वा इस भव मे पहिले के सख्यात असंख्यात अनत भवो * इत्यादि यहा ग्रठारह पापस्थानो की आलोयणा विशेष विस्तार पूर्वक अपने से बने इस प्रकार कहनी ।

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