Book Title: Jain Swadhyaya Mala
Author(s): Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh Sailana MP
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 397
________________ ३८० वृहदालोयणा उद्यम करी पहोचे तीरे, बैठी धर्म जहाज ।३१॥ पतित उद्धारन नाथजी, अपनो विरुद विचार । भूल चूक सब माहरी, खमिये वारवार ।३२। माफ करो सब माहरा; आज तलक ना दोष । दीनदयाल देवो मुझे, श्रद्धा शील सतोप ।३३। देव अरिहत गुरु निग्रंथ, संवर निर्जरा धर्म । केवली भापित शास्त्र है, येही जैन मत मर्म ।३४। इस अपार ससार मे, अवर शरण नही कोय । या ते तुम पद कमल ही, भक्त सहायी होय ।३५॥ छट पिछला पाप से, नवा न बाधु कोय । श्री गुरुदेव प्रसाद से, सफल मनोरथ मोय ।३६। प्रारभ परिग्रह त्यजी करी, समकित व्रत आराध । अन्त समय आलोय के, अनशन चित्त समाध ।३७। तीन मनोरथ ए कह्या, जे ध्यावे नित्य मन्न । शक्ति सार वरते सही, पावे शिव सुख धन्न ।३८। श्री पच परमेष्टी भगवन गुरुदेव महाराजजी आपकी आज्ञा है, सम्यक ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, संयम, सवर, निर्जरा और मुक्तिमार्ग यथा शक्ति से शुद्ध उपयोग सहित आराधने, पालने, फरसने, सेवने की आज्ञा है । वारंवार शुभ योग संवधी, सउभाय ध्यानादिक अभिग्रह. नियम, पच्चक्खाणादिक करने, करावने की, समिति गुप्ति प्रमुख सर्व प्रकारे अाज्ञा है। निश्चय चित्त शुद्ध मुख पढत, तीन योग थिर थाय । दुर्लभ दीसे कायरा, हलुकर्मी चित्त भाय ।।

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