Book Title: Jain Swadhyaya Mala
Author(s): Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh Sailana MP
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 386
________________ जैन स्वाध्यायमाला ३६१ आज दिन तक इस भव मे और पहिले सख्यात असं. ख्यात अनत भवो मे, कुगुरु कुदेव और कुधर्म की सद्दहणा प्ररूपना फरसना सेवनादिक सबधी पाप दोष लगा, उनका मिच्छामि दुक्कडं । मैंने अज्ञानपन से मिथ्यात्वपन से अबतपन से कषायपन से अशुभयोग से प्रमाद करके अपछंदा अविनीतपना किया, श्री अरिहत भगवंत वीतरागदेव, केवलज्ञानी, गणधरदेव, आचार्यजी महाराज, धर्माचार्यजी महाराज, उपाध्यायजी महाराज, साधुजी महाराज, आर्याजी महाराज, तथा सम्यगदष्टि स्वधर्मी श्रावक और श्राविका, इन उत्तम पुरुषो की तथा शास्त्र सूत्रपाठ अर्थ परमार्थ और धर्म सबधी समस्त पदार्थों की प्रविनय अभक्ति पाशातना आदि की, कराई, अनुमोदी, मन वचन काया से, द्रव्य क्षेत्र काल भाव से, सम्यक् प्रकार विनय भक्ति आराधना पालना फरसना सेवनादिक यथायोग्य अनुक्रम से नहीं की, नही कराई, नही अनुमोदी, तो मुझे धिक्कार धिक्कार वारवार मिच्छामि दुक्कड । मेरी भूल चूक अवगुण अपराध सब मुझे माफ करो । मैं मन वचन काया करके क्षमाता हैं। दोहा मैं अपराधी गुरुदेव को, तीन भवन को चोर । ठग बिराना माल मैं, हा हा कर्म कठोस ।। कामी कपटी लालची, अपछदा अविनीत । अविवेकी क्रोधी कठिन, महापापी * रणजीत ।२। जे मैं जीव विराधिया, सेव्या पाप अठार । * पढने वाचने वाले यहाँ अपना नाम बोले।

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