Book Title: Jain Swadhyaya Mala
Author(s): Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh Sailana MP
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 382
________________ जैन स्वाध्यायमाला ३६५ सत मत छोड़ो हो नरा, लक्ष्मी चौगुनी होय । सुख दुख रेखा कर्म की, टाली टले न कोय |३०| गोधन गज धन रत्न धन, कंचन खान सुखान । जब आवे सताष धन, सब धन धूल समान । ३१ । शील रतन महोटो रतन, सब रतना की खान । तीन लोक की सपदा, रही शील मे आन |३२| शीले सर्प न ग्राभडे, शीले शीतल आग । शीले अरि करि केसरी, भय, जावे सब भाग |३३| शील रतन के पारखु, मीठा बोले वैन | सब जग से ऊँचा रहे, जो नीचा राखे नैन |३४| तन कर मन कर वचन कर, देत न काहु दु ख । कर्म रोग पातक झडे, देखत वा का मुख |३५| पान खरंतो इम कहे, सुन तरुत्रर बनराय । अब के बिछुडे कब मिले, दूर पडेगे जाय |३६| तब तरुवर उत्तर दियो, सुनो पत्र एक बात | इस घर एही रीत है, एक आवत एक जात |३७| वरस दिना की गाठ को, उत्सव गाय वजाय । मूरख नर समझे नही, वरस गाठ को जाय |३८| सोरठा- - पवन तणो विश्वास, किण कारण ते दृढ कियो । इनकी एही रीत, आवे के आवे नही || दोहा करज बिराना काढ के, खरच किया बहु नाम । जब मुद्दत पूरी हुवे, देना पडशे दाम |१|

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