Book Title: Jain Siddhanta Author(s): Atmaram Upadhyaya Publisher: Jain Sabha Lahor Punjab View full book textPage 9
________________ ॥ श्री वीतरागाय ॥ नमो समणस्स भगवतो महावीरस्सणं ।। ॥ श्री जैन सिद्धान्त ॥ ( श्री अनेकान्त सिद्धान्त दर्पण) ॥ प्रथम सर्गः॥ प्रिय सुज्ञ पुरुषो ! मनुष्यभवको प्राप्त करके तत्त्व विद्याका विचार करना योग्य है, क्योंकि सिद्धान्तसे निर्णय किये विना कोई भी आत्मा पूर्ण दर्शनारूढ़ व चारित्रारूढ़ नहीं हो सक्ता है। सिद्धान्त शब्दका अथे ही वही है, जो सर्व प्रमाणोंद्वारा सिद्ध हो चुका हो, अपितु फिर वह सिद्धान्त ग्रहण करने योग्य होता है । तथा सिद्धान्त शब्द पूर्ण सम्यक् दर्शनका ही वाचक है, इसी वास्ते उमास्वातिजी तत्त्वार्थसूत्रकी आदिमें मुक्ति मार्गका वर्णन करते हुए यह सूत्र देते हैं:Page Navigation
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