Book Title: Jain Shwetambar Tirth Antriksha Parshwanath
Author(s): Antriksha Parshwanath Sansthan Shirpur
Publisher: Antriksha Parshwanath Sansthan
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RYAN
Saran
एक दिन रोगी श्रीपालनपाल, आवे सरोवर पास । हाथ पग धोया के रोगनो, त्यांथी थयो झट नाश । प्रभुजी० १६ ॥ रायराणी विचारे दिलमां, शाथी थई शुद्ध काय । त्यारे सुपनमां वाणी सांभळी, प्रतिमा छे जलमांय । प्र० १७ ॥ एना प्रभावे रोग गयो छे, एम जाणी श्रीपाल । जलमांथी प्रभुने काढीने, देखे जगत् प्रतिपाल । प्र० १८ ॥ निरविकारी अतिमनोहरी. भवदुःख भंजन हार । मूर्तिने निजनगर लाववा, राजा थयो तैयार । प्र० १९ ॥ पण जातां पछवाडे जोयु, तेथो मूति न जाय ।। अति उत्तम प्रभावशाली, ते अधर रही देखाय ॥ प्र० २० ॥ अद्भुत एवो चमत्कार देखीं, राजाए शीरपुर गाम । वसावी चैत्य कराव्युं, सुंदर पूजा करे अभिराम । प्र० २१ ॥ सम्पूर्ण तीर्थन वर्णन करतां, आवे नहीं कांई पार ।। ते कारण श्री तीर्थ कल्पथी, उद्धर्यों एटलो सार । प्र० २२ ॥ ज्यांथी श्री पार्श्वप्रभुजी निकल्या, मोजुद छे ते ठाम । वेरूलमां देखीयु, ते तो कुंडसरोवर धाम । प्र० २३ ॥
अगीयार लाख वर्ष थयां छे, ए प्रतिमाने खास । तीर्थ वंदनमा नाम निरुपण, जुवो अंतरिक्ष पास । प्र०
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२६ ॥
भवदावानल तापे तपेला, भविजन अपरंपार । तेहने शीतलता ऊपजावे, मूर्ति अति मनोहार । प्र० कलिकाले अंतरिक्ष पासनो, महिमा जगमशहुर । अनेक यात्रालु यात्रा करीने, कर्म करे चकचूर । प्र० गिरापति गुण गाई शके नहि, माराथी केम गवाय । तो पण भक्ति वशे गुण गाया, शक्ति प्रमाणे कवाय । प्र० देव अपर निर्दोष न जगमां, जोयो सकल संसार । ते कारण मुज मन लोभाणु, करो हवे भवपार । प्र० अपराधी जीवोने ऊधरी, कर्मों तुमे उपगार । हुं तो तमारा चरणोनो सेवक, आवागमन निवार । प्र०
२७ ॥
२८ ॥
२९ ॥
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