Book Title: Jain Shwetambar Terapanthi Sampraday ka Sankshipta Itihas
Author(s): Jain Shwetambar Terapanthi Sabha
Publisher: Malva Jain Shwetambar Terapanthi Sabha

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Page 10
________________ (७ ) मिथ्या पक्ष न रखना चाहिये, पूजा प्रशंसा तो कई बार मिल चुकी है पर सच्चा मार्ग मिलना बहुत ही कठिन है, अतः सच्चे मार्ग को प्राप्त करनेमें इन बातोंको नगण्य समझना चाहिये। आपको इसमें कोई सन्देह न रहना चाहिए कि यदि आपने शुद्ध जैन मार्गको अङ्गीकार किया तो मेरे लिए आप पहिलेकी तरह ही पूज्य रहेंगे । परन्तु भिखणजीकी इस विनम्र चर्चा का रघुनाथजी पर कोई असर न हुआ वे पंचमआरे का प्रभाव कह कर ही उनकी बातें टालते रहे । स्वामी भीखणजी इस उत्तरसे सन्तुष्ट होने वाले न थे। उनकी दृष्टि से इस दुषमकालमें सम्यक् चरित्र पालन करनेके उद्यममें कमी आनेके बदले और अधिक बल आना चाहिए था। भगवानने जो पंचम आरेको दुषमकाल बतलाया था उसका तात्पर्य यह न था कि इस कालमें कोई सम्यक धर्मका पालन ही न कर सकेगा पर उसका अर्थ यह या कि चरित्र पालनमें नाना प्रकारकी शारीरिक तथा मानसिक कठिनाइयां रहेंगी इसलिए चरित्र पालनके लिए बहुत अधिक पुरुषार्थकी आवश्यकता होगी। उन्होंने भगवानमहावीरका यहकथन पढ़ लियाथा कि जोपुरुषार्थहीन होंगे और साधु-प्रण पालनेमें असमर्थ होंगे वे ही समयका दोष बतला कर शिथिलाचारको छोड़ नहीं सकेंगे। गुरु रघुनाथजीको जब हर प्रकारकी चेष्टा करके भी स्वामीजी ठीक पथपर न ला सके तब स्वामीनी स्वयं ही उनसे अलग हो गये और शुद्ध सयंम मार्गपर चलनेका दृढ़ निश्चय कर लिया। भिखणजीने वगड़ी शहरमें रघुनाथजीका संग छोड़ दिया और उनसे अलग विहार कर दिया। भारीमालजी आदि कई सन्त भी उनके साथ हो गये। इस प्रकार गुरु रघुनाथजीसे अलग होकर उन्होंने अपने लिये विपत्तियों का पहाड़ खड़ा कर लिया। उस समय रुघुनाथजीकी अच्छी प्रतिष्ठा थी और उनके श्रद्धालु भक्तोंकी संख्या भी बहुत अधिक थी। भिखणजीके अलग होते ही रघुनाथ जोने उनका घोर विरोध करना शुरू किया। परन्तु भिखणजी इन सबसे विचलित होने वाले न थे । वगड़ीमें भिखणजीको स्थान न देनेका ढिंढोरा

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