Book Title: Jain Shwetambar Terapanthi Sampraday ka Sankshipta Itihas
Author(s): Jain Shwetambar Terapanthi Sabha
Publisher: Malva Jain Shwetambar Terapanthi Sabha

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Page 25
________________ ( २२ ) (२) वचन-वाणीके अशुभ व्यापारको रोकना अर्थात् वाणीका संयम करना। (३) कायाको-बुरे कार्योंसे रोकना अर्थात् देहको संयममें रखना। समितियाँ साधु जीवनकी प्रवृत्तियाँको निष्पाप बनाती हैं अर्थात् आवश्यक क्रियाएँ करते हुए भी साधु समितियोंके पालनके कारण पापके भागी नहीं बनते तथा गुप्तियां अशुभ व्यापारसे निवृत होनेमें सहायता करती हैं । इस प्रकार साधुका जीवन सम्पूर्ण संयमी होता है। वे इतने व्यवहार कुशल होते हैं कि संयमी जीवनकी सारी क्रियाओंको करते हुए भी अपनी सावधानी या उपयोगके कारण पाप कर्मका उपार्जन नहीं करते। __ जैन श्वेताम्बर तेरापन्थी साधु उक्त नियमोंको संपूर्णतया पालते हैं और इनके पालनेके विषयमें जो सब कठोर नियमादि समय समय पर अनुभवी बहुदर्शी आचार्योने बनाये हैं उन पर पूर्ण ध्यान रखते हुए वे अपना संयम जीवितव्य निर्वाह करते हैं। ___ जैन श्वेताम्बर तेरापन्थी मत कोई नया सम्प्रदाय नहीं है । परन्तु वह आदि अथवा मूल जैनधर्म ही है जैनधर्मका । जो आदि स्वरूप था वह हजारों वर्षों के पड़ोसी धर्मोके संसर्ग या प्रभावके कारण इतना बदल गया कि आज जब उसका असली स्वरूप सामने लाया जाता है तो लोग उसे अनोखा धर्म समझ कर उसका मनमाना अनुचित विरोध करने लगते हैं। परन्तु यह कोई आश्चर्यकी बात नहीं है । जैनधर्ममें समय तथा वातावरणके प्रभावसे जो विकार आया लोग धीरे-धीरे उससे इतने परिचित एवं अभ्यासी हो गये कि आज उनके लिए जैनधर्मके असली और विकृत रूपमें भेद करना भी मुश्किल हो गया। जब धर्म अपने उच्च स्थानसे गिरना शुरू हुआ और अन्य पड़ोसी धर्मोंने जोर पकड़ा तो कुछ जैन लेखक या व्याख्याकारोंने जैन खूत्रोंके पाठौका अर्थ बदलना शुरू किया और उनका ऐसा अर्थ दुनियाके सामने रखा जो कि जैनधर्मसे खिलाफ

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