Book Title: Jain Shwetambar Terapanthi Sampraday ka Sankshipta Itihas
Author(s): Jain Shwetambar Terapanthi Sabha
Publisher: Malva Jain Shwetambar Terapanthi Sabha
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( २१ )
है जिस वचनसे अविश्वास उत्पन्न हो, दूसरा शीघ्र कुपित हो, दूसरेका अहित हो वैसी भाषा बोलना साधुके लिए सर्वथा वर्जनीय है ।
(३) एषणा - इस समिति के अनुसार साधुको आहार पानी, वस्त्र, पात्रादि उपकरण तथा पाट बाजोटादि वस्तुएँ लेनेके पूर्व सावधानीसे काम लेना होता है । उनकी भिक्षा करने, उनसे स्वीकार करने तथा उसको उपभोगमें लानेमें संयमको किसी प्रकार से आघात न पहुंचे इस प्रकार उपयोग या सावधानी रखना पड़ता है। निर्दोष तथा परिमित भिक्षा, अल्प कल्पानुसार उपकरण आदि ग्रहण करना इस समितिके भीतर आ जाता है । किसी वस्तुको ग्रहण करनेके पूर्व साधुको इस बात की पूरी खोज कर लेना पड़ता है कि कहीं साधुको उद्देश करके ही तो वह वस्तु नहीं खरीदी, लायी यां बनायी गयी है ।
(४) आदान भंड निक्षेपण - वस्त्र पात्रादि उपकरणोंको उपयोग पूर्वक उठाना और रखना जिससे कि किसी जीवको कोई इजा ( कष्ट ) न पहुंचे । चीजको अच्छी तरहसे देख पूंछ कर ही रखना उठना साधुके लिए कर्तव्य है ।
(५) उच्चारादि प्रतिष्ठापन - मल, मूत्र, श्लेष्म या अन्य परिहार्य वस्तुको किसी जीवको दुःख न पहुंचे ऐसे स्थानमें उपयोग पूर्वक विसर्जन करना इस समितिका उद्देश्य है । जैन साधू मल, मूत्र श्लेष्मादि जीव - उत्पन्न करने वाली त्याज्य वस्तु तथा गंदगी, रोगादि फैलाने वाली परिहार्य चीजों को जहां तहां नहीं फेंक सकते। अपथ्य आहार, न पहरे जाने योग्य फटे कपड़े तथा अन्य विस- जनयोग्य चीजोंको जीव रहित एकान्त स्थानमें उत्सर्ग करते हैं।
(ग) तीन गुप्ति मन, वचन तथा काया गुप्तिके सम्यक् पालनमें साधुको सदा सर्वदा सचेष्ट रहना पड़ता है ।
(१) मन - मनके दुष्ट व्यापारोंको रोकना सरंभ, समारंभ तथा आरम्भसे मनको रोककर शुद्ध क्रियामें प्रवृत्त करना ।