Book Title: Jain Shwetambar Terapanthi Sampraday ka Sankshipta Itihas
Author(s): Jain Shwetambar Terapanthi Sabha
Publisher: Malva Jain Shwetambar Terapanthi Sabha

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Page 34
________________ ( ३१ ) हो तो विवेकका सहारा लेना चाहिए । दान सत्पात्र के लिए ही है । कुपात्र को दान देना धर्म स्थानमें पापोपार्जन करना है । जो जीव सर्वथा हिंसा नहीं करता, सर्वथा झूठ नहीं बोलता, सर्वथा चोरी नहीं करता, संपूर्ण शीलकी रक्षा करता है, और बिलकुल परिग्रह नहीं रखता वही सुपात्र है ऐसे सुपात्रको दान देना सुक्षेत्रमें बीज डालनेकी तरह है कि जिसका फल बड़ा अच्छा होता है । जिनमें ये गुण नहीं वे कदापि सुपात्र नहीं । उन्हें दान देना धर्मका कारण नहीं हो सकता, सांसारिक कर्तव्य भलेही हो पर सांसारिक लाभालाभसे धार्मिक लाभालाभ विभिन्न है । 1 दान देनेमें दयाका उल्लंघन न हो इसका भी पूरा ख्याल रखना चाहिये । जिस दानसे दयाका उल्लंघन होता हो वह दान सच्चा दान नहीं है । स्व० दार्शनिक कवि श्रीमद् राजचन्द्रने एक जगह ठीक ही कहा है:सत्य, शीलने, सघलां दान, दया होइ ने रहयां प्रमाण । दया नहीं तो ए नहीं एक, बिना सूर्य किरण नही देख || अतः दयाकी रक्षा करते हुए ही दान देना चाहिए। जिस दानमें जीवोंकी हिंसा रही हुई हो उस दानको न करना चाहिए। इसलिए सजीव धान्यादिका दान करना हिंसाका कार्य होनेसे पाप मूलक है । साधु ऐसे दानको स्वयं ग्रहण नहीं करते और न ऐसे दानकी प्रशंसा या सराहना करते हैं । भगवानने ऐसे सावद्य दानकी जगह जगह निन्दा की है। और इसे आत्मघातक बतलाया है । जिस दानसे आत्मिक कल्याण या धर्म, पुण्य होना बतलाया गया है वह दान दूसरा ही है। सच्चे जैन धर्मके रहस्योंको बतला कर किसीको सन्मार्ग पर लाना - उसे सम्यक्तीत सच्चे दर्शनको मानने वाला, तथा सत् चारित्र बनाना यही धर्म-दान है। सच्चे साधु मुनिराजको उनके तपस्वी जीवनके योग्य शुद्ध कल्प वस्तुओंका दान देना यह भी शुद्ध दान है । ऐसे दानसे नवीन कर्मोंका आना रुकता है, कर्मोंकी निर्जरा होने से धर्म पुण्यका संचार होता है। ऐसा दान सम्पूर्ण निर्वद्य होता है। भगवान खुद .

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