Book Title: Jain Shwetambar Terapanthi Sampraday ka Sankshipta Itihas
Author(s): Jain Shwetambar Terapanthi Sabha
Publisher: Malva Jain Shwetambar Terapanthi Sabha

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Page 16
________________ ज्ञान अगाध और आश्चर्यकारी था। ऐसा कोई भी आध्यात्मिक विषय न था जिस पर वे लिख न गये हैं। स्वतंत्र रचनाओंके अतिरिक्त उन्होंने जैन सूत्रोंका पद्यानुवाद भी किया था। उनके अनुवादमें भाषाकी सरलता, अर्थकी स्पष्टता, मूल भावोंकी रक्षा तथा व्यक्त करनेकी सरलतासे आश्चर्यकारी पांडित्य झलक रहा है । भगवती सूत्र जैसे विशाल तथा सूक्ष्म रहस्यपूर्ण ग्रन्थका अनुवाद करना कम विद्वत्ताका काम नहीं हो सकता। इसी प्रकार उत्तराध्ययन, दशवैकालिक सूत्र आदि शास्त्रोंका भी उत्तमता पूर्वक अनुवाद किया है । ये अनुवाद उनकी असाधारण विद्वत्ताकी चिरस्थायी कीतियां हैं। इन अनुवादांके अतिरिक्त उनकी मूल रचनाएँ भी कम नहीं हैं। 'भ्रम विध्वंसनम्', 'जिन आज्ञा मुख मण्डनम्', 'प्रश्नोत्तर तत्ववोध', आदि ग्रन्थ तात्त्विक विषयोंकी बड़ी उत्तम पुस्तकें हैं। एक एक विषयके सारे शास्त्रीय विचार और प्रमाणको एक जगह एकत्रित करनेमें उन्होंने जो अथाह परिश्रम किया है वह किसी भी निष्पक्ष विद्वानकी प्रशंसा प्राप्त किये बिना नहीं रह सकता। इनकी फुटकर रचानाएँ भी कम नहीं हैं। जीवन चरित्र लिखनेमें तो आप और भी अधिक सिद्धहस्त थे। 'भिक्षुयश रसायन' तथा 'हेम नव रसो' नामक जीवन चरित्रमे आपने अपनी प्रतिभा का अपूर्व परिचय दिया है। यद्यपि ये पुस्तकें मारवाड़ी भाषामें है फिर भी यह कहे बिना नहीं रहा जाता कि हिन्दी साहित्यमें ही नहीं पर दूसरी भाषाओंके साहित्यमें भी ऐसे कलापूर्ण जीवन चरित्र कम ही मिलेंगे। श्री जयाचार्यने धर्मका अच्छा प्रचार किया था। उनके शासन कालमें १०५ साधू और २२४ साध्वियां दीक्षित हुई थीं। आपका देहावसान ७८ वर्षकी अवस्थामें भाद्र बदी १२ सं० १६३८ को जयपुरमें हुआ। आपने सर्वथा योग्य समझ स्वामीजी श्री मधराजजीको पाटवी चुन लिया था। पंचम प्राचार्य, पांचवें आचार्य श्री श्री १००८ श्री श्री मघराजजी स्वामीका जन्म बीकानेर रियासतके विदासर गांवमें चैत सुदी ११ सं० १८६७ को हुआ

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