Book Title: Jain Shwetambar Terapanthi Sampraday ka Sankshipta Itihas
Author(s): Jain Shwetambar Terapanthi Sabha
Publisher: Malva Jain Shwetambar Terapanthi Sabha
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( १० ) मर्थ है तथा झाणावरणीय कर्मके प्रावल्यके कारण उन्हें समझाना बहुत कठिन है, धर्मके द्वेषी अधिक हैं तथा समझदारोंका अभाव-सा है। ऐसी परिस्थितिमें धर्म-प्रचार करनेका उद्योग असफल ही रहेगा। इसलिये इस उद्योगमें व्यर्थ शक्ति व्यय न कर मुझे अपने ही आत्म-कल्याण का विशेष उद्योग करना चाहिये । घर छोड़ कर इस कठिन मार्गमें साधु साध्वियाँका प्रवजित होना मुश्किल है इसलिये उग्र तपस्या कर मुझे अपना आत्मोद्धार करना चाहिये । इस प्रकार विचार कर उन्होंने एकान्तर व्रत करना शुरू कर दिया तथा धूपमें आतापना लेनी शुरू की। अन्य साधुओंने भी भिखणजीका साथ दिया। इस प्रकार स्वामीजीने अपने मत रूपी वृक्षको अपने तप रूपी जलसे सींचना शुरू किया। भिखणजीके समयमें थिरपालजी तथा फतेहचन्दजी नामक दो साधु थे, वे तपस्वी, सरल तथा भद्र प्रकृतिके थे। उन्होंने भिखणजीको इस प्रकार उग्र तप करते देख कर समझाया कि तपस्या द्वारा अपने शरीरका अन्त न करें आपके हाथों लोगोंका बहुत कल्याण होना सम्भव है। आपकी बुद्धि असाधारण है । अपने कल्याणके साथ-साथ दूसरोंके कल्याण करनेका सामर्थ्य भी आपमें है, आप अपनी बुद्धि और शक्तिका प्रयोग करें आपसे बहुत लोगोंके समझाए जानेकी आशा है। इन वयोवृद्ध साधुओंकी परामर्शको मिखणजीने स्वीकार किया और तभीसे अपने धार्मिक सिद्धान्तोंका लोगोंमें प्रचार करनेका विशेष उद्योग करने लगे। उन्होंने सिद्धान्तोंको ढालोंमें लिख-लिख कर शास्त्रीय उदाहरणों से उनका पोषण किया । न्याय तथा तार्किक दृष्टिसे उन्होंने दान दया पर सुन्दर ढालें रची, व्रत अव्रतको खूब समझाया। नव तत्वों पर एक महत्त्वपूर्ण पुस्तक लिखी, श्रावकके व्रतों पर नया प्रकाश डाला। शील (ब्रह्मचर्य ) के विषय पर महत्व पूर्ण रचना की । इस प्रकार क्रमशः उनके विचार जनताके हृदय पर असर करते गये। साध्वाचार पर ढालें रच कर शिथिलाचारको हटानेका प्रचार किया और सच्चा साधुत्वं क्या है इसका अपने चरित्रसे लोगोंके सामने उदाहरण रखा । इस प्रकार उन्होंने