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काव्य पिलाल
वैराग्य-बोध के दोहे
रागादिक दूषण तजे, वैरागी जिनदेव | मन वच शीस नमाय के, कीजे तिनकी सेव ॥ १ ॥ जगत मूल यह राग है, मुक्ति सूल वैराग । मूल दोनों के ये कहै, जाग सके तो जाग || २ || क्रोध मान माया धरत, लोभ सहित परिणाम । येही तेरे शत्रु है, समको आत्माराम ॥३॥ इन ही चारों शत्रु को, जो जीते जग मांहि । सो पावे पथ मोक्ष को, यामें धोखो नोहिं ॥४॥ जो लक्ष्मी के काज तू, खोवत है निज धर्म | सो लक्ष्मी संग ना चले, काहे भूलत भर्म ॥५॥ जो कुटुम्ब के कारने, करत अनेक उपाय । सो कुटुंब अगनी लगा, तुझको देत जलाय || ६ || पोषत है जिस देह को, जोग त्रिविधि के लाय । सो तुझको क्षण एक में, दगा देय खिर जाय ॥७॥ लक्ष्मी साथ न अनुसरे, देह चले नहिं संग | काढ काढ सुजनहि कहे, देख जगत के रंग ॥ ८८ ॥ दुर्लभ दश द्रष्टांत सम, सो नरभव तुम पाय । विषय सुखन के कारने, चले सर्वस्व गुमाय || || जगहि फिरत कइ युग भधे, सो कछु कियो बिचार |