Book Title: Jain Shiksha Part 03
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

View full book text
Previous | Next

Page 364
________________ ( १२५ ) (६४) ज्ञान दर्शन का जिसमें गुण न हो वह अजीव. (६५) आठ कर्मों की मार से आत्मा मूच्छित हो रही है. (६६) मोहनीय कर्म हिताहित का बोध नहीं होने देता. (६७) जीव की कर्म से मित्रता है जिससे दुष्ट मित्र अपना कर्तव्य बजाकर आत्मा को विशेष दुःखी बनाता है. (६८) सज्जन शुभ राह पर ले जाते हैं पर दुर्जन दुष्ट मार्ग में ले जाते हैं उसी प्रकार अशुभ कर्म अशुभ कार्य कराते है और शुभ कर्म शुभ कार्य कराते हैं (६९) आत्मा जैसा कर्म-बीज बोता है उसी प्रकार उसको फल मिलता है । ( ७० ) आत्मा और कर्म के बीच में अशुद्ध भाव सांकल ज्यों लगे हैं ये अशुद्ध भाव ही आत्मा और कर्म का संयोग कराते हैं. (७१) शरीर में "अहं" कहने वाली ही आत्मा है. ( ७२ ) सुख दुःख का अनुभव कर्म से होता है । (७३) जोंक सड़े हुए खून का पान करके आनद मानती है उसी प्रकार अज्ञानी विषय कषाय में आनंद मानते हैं और भव भ्रमण करते हैं । १ (७४) चोर तप्त लोहे के गोले पर पैर रखते ही पश्चात्ताप करता है और उदासीन रहता है उसी प्रकार समदृष्टि भोग को रोग समझ कर उससे उदासीन रहते हैं । '

Loading...

Page Navigation
1 ... 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388