Book Title: Jain Shiksha Part 03
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 358
________________ ( १२१ ) ( ३६ ) आत्मा ही माता, पिता, पुत्र, बंधु मित्र व स्नेही है आत्मा के सिवाय सब दूसरे हैं । (३७) समस्त कषाय का नाश ही शुद्ध भाव है । (३८) जैसे बिल्ली चूहे खाने में पाप नहीं मानती उसी प्रकार अज्ञानी आरंभ परिग्रह विषय और कपाय में) पाप नहीं मानते । (३९) चौदह राजु लोककी संपति अल्प है और अज्ञानीकी) आशा अनंत है । (४०) जैसे एक चूहे के पीछे कई बिल्लियां दौड़ती हैं उसी प्रकार एक आत्मा को सताने के लिए अनेक विषयकपायी कर्म लगे रहते हैं । संयमी व ज्ञानी ही । अपनी रक्षा कर सकते हैं । ( ४१ ) अज्ञानी का एक क्षण भर भी ऐसा नहीं है कि जिस समय वह विषय - कपाय व कर्म न बांध रहा) हो । समय २ पर वह सात या आठ कर्म उपार्जन कर रहा है और भारी हो रहा है । (४२) संसार में सुख है ही नहीं । क्षुधा, तृपादि रोग हैं और खान पान इस रोग की दवा है पर अज्ञानी ऐसे रोग को भोग मानते हैं । (४३) विषय-वासना रोग है और काम मोग साज खनने के समान है । जिसे खाज न हो. वे स्वस्थ हैं

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