Book Title: Jain Satyaprakash 1937 09 10 SrNo 26 27
Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad

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Page 38
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [23] શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ [ 44 3 यह लेख विक्रम संवत १५४२ शके १४०७ मार्गशीर्ष शुक्ल ६ रविवार को लगाया गया जो तारापुर मंदिरके नौ वर्ष पेश्तर का है । प्रथम कुंड बनवाया होगा और मंदिर का काम चलता रहा होकर गुरु महाराज का अवसर का योग मिलने पर विक्रम सं. १५५१ के वैशाख शुदी ६ को प्रतिष्ठा कराई होगी और वो शिलालेख लगाया होगा । कुंड और मंदिर गोपालने ही बनाये और सूरीश्वर श्री कनकप्रभरि महाराज से प्रतिष्ठा करवाई । गयासदीन बादशाह धनुषविद्या में निपुण होने से शिकार ज्यादे करता था । उनको उपदेश देकर यह हिंसा बंद करवाई । यतिजीने तो मांडवगढ के इतिहास में गोपाल को धनुष्य विधा में प्रवीण बताया और उससे बादशाहने खुश होकर अपना मंत्री बनाया । तात्पर्य संस्कृत के अथीं जान सकते हैं । उक्त कुंड बडा सुन्दर और अच्छी कारीगरी से बनाया गया है। शत्रुंजय तीर्थ का स्थापन करने के विचार से श्री सुपार्श्वनाथ प्रभु का मंदिर व शत्रुंजय तीर्थ आदि के पट्ट व सूर्यकुंड निर्माण किये यह स्पष्ट है । गताङ्क में तारापुर मंदिर के लेख में हमारा अभिप्राय का विषय छपा है उसमें इस सूर्यकुंड की जानकारी लिख दी गई है। मंदिर और सूर्यकुंड के जिर्णोद्धार की अति आवश्यकता है । अगर इसका ध्यान नहीं दिया जायगा तो भविष्य में रही सही वस्तु श्री मिटीया मेट हो जायगी या राज्य सत्ता में शाही इमारत के प्रबन्ध में चला जायगा । खास 66 "" मांडवगढनो राजियो, नामे देव सुपार्श्व । ऋषभ कहे जिन समरतां, पहोंचे मननी आश॥ इस चैत्य बंदन के दोहे का तात्पर्य उपर्युक्त मंदिर व सूर्यकुंड ही साक्षी देते हैं । यात्रार्थियों को यहां की यात्रा करने के साथ एक वक्त उसे भी देखने का ध्यान रखना चाहिये । २ स्वर्गस्थ मुनिराज श्री हिमांशुविजयजी महाराजने “वीणा” मासिक पत्र का वर्ष १० अंक ९ के जुलाई अंक में मंडप दुर्ग औरु अमात्य पेथड are लेख में लिखा है कि पूर्व समय में रामचन्द्र और सीताजी के वक्त में श्री सुपार्श्वनाथ की मूर्ति थी ऐसा उपदेशतरंगिणी में लिखा है । इस से भी वहां की बहुत प्राचीनता नजर आती है। For Private And Personal Use Only

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