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पं० इन्द्रचंद्रजीसे
लेखकः-मुनिराज श्री ज्ञानबिजयजी पं० इन्द्रचन्द्रजी लिखते हैं कि-" श्वेताम्बरीय आगम-ग्रन्थों को गौतमादि गणधर प्रणीत बतलाते हैं" -जैनदर्शन, पृ० ४२६ । ।
लेखक का यह वाक्य तथ्य है कि जो श्वेताम्बर सम्मत आगम हैं वे गणधरादि प्रणीत हैं। याने श्वेताम्बर समाजमें गणधर, श्रुतकेवली, दश व दशसे अधिक पूर्वके ज्ञाता, प्रत्येकबुद्ध और तीर्थकरके शिष्यकी रचना आगम मानी जाती है। इनमेंसे ८४ आगम मौजूद थे । आज ४५ आगम विद्यमान हैं । किन्तु दिगम्बर भी ऐसा ही मानते हैं, देखिए
सुत्तं गणधरकहिद, तहेव पत्तेयबुद्धकथिदं च । सुदकेवलिणा कथिदं, अभिन्नदसपूवकथिदं च ॥८०॥
-मूलाचार, पूर्वार्ध, पृ० २३२ " गणधर, प्रत्येकबुद्ध, श्रुतकेवली और दशपूर्वधर द्वारा कहा गया ग्रन्थोंका समूह सूत्र कहलाता है” । जनदर्शन, व० ४, पृ० २७४ । अंग १२ और अंगबाह्य १४ ऐसे कुल २६ आगम हैं। तदंगबाह्ममनेकविध...तभेदा उत्तराध्ययनादयोऽनेकविधाः ।
-संस्कृत राजवार्तिका, पृ ५४ । अंगबाह्य १४ इस प्रकार हैं-सामायिक, चतुर्विशति स्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, वैनयिक, कृतिकर्म, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, कल्प-व्यवहार, कल्पाकल्प, महाकल्प, पुंडरीक, महापुंडरिका और निषिद्धिका। ......
-राजवार्तिक (भाषाटीका), पृ० ८८२; जैनदर्शन, पृ० २७७ । ये २६ आगम उपरके ८४ आगमों में से ही हैं। मगर इनमें स्त्रीमुक्ति, केवलिभुक्ति और वस्त्र का निरूपण इत्यादि साफ साफ होनेसे दिगम्बर इन्हें आगम के रूपमें मानते नहीं हैं। दिगम्बर समाजको जिनागम नसीब नहीं हुआ, अतः वो भ० महावीर स्वामी के कई वर्ष बाद के श्वेताम्बर आगमोंके आधारसे तैयार किये हु ग्रन्थको आगम मानता है।
दि० पं० कुन्दनलालजी कबुल करते हैं कि-"वे (भूतबल्ली और पुष्पदंत) गणधर, श्रुतकेवलि, पूर्वधर अथवा दशपूर्वके पाठी नहीं थे अंत एव उनकी रचना सूत्र अंग पूर्ववस्तु प्राभृत एवं प्राभृत प्राभृत नहीं....
-जैनदर्शन, व० ४, अं० ६, पृ० २७६ ॥ इसमें कोई संदेह नहीं है, कि दिगम्बर समाज के पास गणधर या पूर्वधर के वचन नहीं है; जो कुछ है-वह दिगम्बरीय अनेक गच्छभेद होने के बाद की, सभी दिगंबर संघोंको असम्मत, छद्मस्थ मुनिकी रचना है। हाल दिगम्बर समाज इसीको शास्त्र सिद्धांत यानि आगम मानता है।
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