Book Title: Jain Satyaprakash 1937 07 SrNo 23
Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad

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Page 19
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org दिगम्बर शास्त्र कैसे बने ? लेखक - मुनिराज श्री दर्शनविजयजी गतांक से क्रमशः ) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रकरण १३ - भ० अकलंकदेव दिगम्बर साहित्य में उल्लेख है कि आचार्य अर्हदुबलि ने युगप्रतिक्रमण (आठवां प्रतिक्रमण ) में १०० योजन क्षेत्र के मुनिओं को सम्मिलित करके चार गच्छ विभाग किये (सुअखंधो, गा० ७७; श्रुतावतार, श्लोक ८४; हरिवंश पुराण, सर्ग ६६, श्लोक २५; नीतिसार, श्लोक ६; श्रवणबेलगोल शिलालेख नं० १०५ [२५४ ] ) । जब कि श्रवणबेलगोल शिलालेख नं० १०८ में उत्कीर्ण है कि तस्मिन् गते स्वर्गभुवं महर्षी, दिवः यतीन्नन्तु ( 2 ) मिव प्रकृष्टान् ॥ तदन्वयोदभूत मुनीश्वराणां बभूवुरित्थं भुवि संघभेदाः ॥ १९ ॥ श्र० बे० शि० १०८ ( रचना शक संवत् १३५५ ) से पता चलता है कि अकलंकसूरिजी ने मुनिसंघ को मिलाकर नंदि, सेन आदि ४ गच्छविभाग किये । - स्वामी समंतभद्र, पृ० १८१ आ० अकलंकदेव विक्रम की आठवीं शताब्दी के उत्तरार्धकालीन दिगम्बर विद्वान् हैं । प्रसिद्ध विद्वान् डा० सतीशचन्द्र विद्याभूषण प्रभृति ने आपका समय शकाब्द ७५० अर्थात् वि० सं० ८०७ का निर्णीत किया है । श्रीयुत नाथूरामजी प्रेमी के कथनानुसार आ० अकलंकदेव, * मान्यखेट ( मानखेडा) के राजा साहसतुंग के मंत्री पुरुषोत्तम के पुत्र हैं। आपका समय विक्रम की आठवीं शताब्दी का उत्तरार्ध है । आपके शिष्य, प्रभाचन्द्र और विद्यानंदी थे । - विद्वद्वत्नमाला, पृ० २३, २४ आपकी ग्रंथ-सृष्टि निम्न प्रकार है : अष्टशती (आप्त मीमांसा का भाष्य ), राजवार्तिक ( तत्त्वार्थ सूत्र - सर्वार्थसिद्धि की १६००० श्लोक प्रमाण टीका), लघीयस्त्रयी ( न्याय चूलिका वगैरह ३ ग्रन्थ), बृहत्त्रयी (१ सिद्धिविनिश्चय, २ न्यायविनिश्चय और ३ प्रमाण संग्रह ), अकलंकस्तोत्र, अकलंक प्रायश्चित्त ( उपासकधर्म प्रायश्चित्त श्लोक ८८ ) और अकलंक प्रतिष्ठापाठ वगैरह । * दिगम्बर समाजमें आपके नाम के अनेक आचार्य हुए हैं : १ भ० अक्कलंकदेव (श्र० बे० शि० नं० ४०, १०५, १०८), २ पंडित अकलंक ( शि० नं० १६९), ३ वादीभसिंह अकलंक (शि० नं० ४१४)। For Private And Personal Use Only

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