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प्रकाशकीय
जैनों के अनुसार सृष्टि अनादि है और उनकी काल-गणना ब्राह्मण-ग्रंथों से भी विशद दिखायी देती है । जैन-कला एवं शिल्प भी अत्यन्त समृद्ध रहे हैं। भारतीय ज्ञानपीठ ने "जैन कला और स्थापत्य' नाम से तीन खण्डों में एक बृहत् ग्रंथ भगवान् महावीर के २५००वें निर्वाण महोत्सव के पावन अवसर पर श्री अमलानन्द घोष के सम्पादकत्व में १६७५ में किया है । उसमें जैन-शिल्प शास्त्रों तथा जैन-पुराणों का आधार लिया गया है । डॉ० शिवराममूर्ति द्वारा लिखित अंग्रेजी ग्रंथ 'पैनोरमा ऑव जैन आर्ट' इंगित करता है कि जैन कला भारतीय संस्कृति के अत्यन्त उदात्त पक्ष का विकास है । किन्तु ये पुराणों पर ही केन्द्रित शोध-कार्य नहीं कहे जा सकते हैं । यह शोध-ग्रन्थ विशेष रूप से उक्त अभाव की पूर्ति करता है, क्योंकि इसने जैन पुराणों की आधारपीठिका पर भारतीय संस्कृति का मनोज्ञ चित्र प्रस्तुत किया है।
पुराणों का भारतीय वाङमय में विशिष्ट स्थान है । पारम्परिक संस्कृतपुराणों के अतिरिक्त जैन-परम्परा में भी पुराणों की रचना हुई है। जैन-पुराणों का प्रणयन यद्यपि गुप्तोत्तर काल में हुआ है, किन्तु विषय-वस्तु एवं विचारधारा की दृष्टि से ये चिर-पुरातन कहे जा सकते हैं। जैन-विद्या के ये विश्व-कोश हैं। संस्कृति एवं सभ्यता का कोई ऐसा अंश नहीं है जो इन पुराणों में वर्णित न हो। जैन-पुराण प्राचीन जैन-संस्कृति के सक्षम वाहक हैं । जैन-पुराण प्राचीन भारतीय संस्कृति का व्यापक चित्र प्रस्तुत करते हैं। इनमें जिन धार्मिक विश्वासों, देव-स्तुतियों, व्रतों की कथाओं, तीर्थों के माहात्म्यों का वर्णन है, उनका जैन-समाज में आज भी घर-घर में प्रचलन है ।
इतिहास-विषयक शोध की पद्धतियों को प्रतिबिम्बित करने वाले डॉ० देवी प्रसाद मिश्र द्वारा लिखित "जैन पुराणों का सांस्कृतिक अध्ययन" नामक इस शोधप्रबन्ध में विषय-वस्तु को बड़े ही सुव्यवस्थित ढंग से प्रस्तुत किया गया है। इसमें जैन
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