Book Title: Jain Pratima Vigyan
Author(s): Balchand Jain
Publisher: Madanmahal General Stores Jabalpur

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Page 167
________________ चतुर्विशति यक्ष १५५ यक्षस्तीर्थे प्रभो ब्रह्मनामा यक्षश्चतुर्मुखः । श्वेत: पद्मासनो बिभ्रच्चतुरो दक्षिणान् भुजान् ।। मातुलिङ्गमुद्गरिण्यौ सपाशाभयदायिनो । वामास्तु नकु नगदाकुशाक्षसूत्रधारिण ।। प्रमरचन्द्र, दगमजिनचरित्र, १७-१८ ११. ईश्वर त्रिशूल दण्डान्वितवामहस्त: करेक्षमूत्र त्वरे फलं च । बिभ्रत्मिना गडककेतुभक्तो लात्वीश्वरोर्चा वषगस्त्रिनेत्रः ।। प्रागाधर, ३/१३६ मव्यान्यहम्तोद्धनमन्त्रिालदडाक्षमालाफलमीश्वराज्यम् । यक्ष त्रिनेत्र परितर्पयामि श्रेयोजिनश्रीपददतचित्तम् ।। नेमिचन्द्र, ३३४ ईश्वरः श्रेयमा यस्त्रिनेको बपवाहन । फलाक्षमूत्रमसान. मत्रिशूलचतुर्भुज ॥ वमुन्दि , ५१३६ श्यक्षी महोक्षगमनो धवलश्चतुर्वािमय टम्मयुगल नकुनाक्षमूत्र । मस्थापयस्तदनु दक्षिणपाणियुग्मे मन्मातलिगकगदावत यक्षराजः ।। आचारदिनकर, उदय ३३. पन्ना १७५ तत्तीर्योत्पन्नमीश्वरयक्ष धवलवणं त्रिनेत्र वपभवाहन चतुर्भनं मानुनिङ्गगदान्वितदक्षिणपाणि नकुलाक्षम त्रयुनवामपाणि चति । निवाणकलिका, पन्ना ३५ ईश्वराख्योभवद्यक्षम्यक्षो गोगे वृपाश्रय. । मातुलिगगदायुक्तो बिभ्राणो दक्षिणो करो ।। वामी तु मनकुलाक्षत्री श्रेयामशामन । अमर चन्द्र, श्रेयाजिनारत्र, १६-२०

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