Book Title: Jain Nibandh Ratnakar
Author(s): Kasturchand J Gadiya
Publisher: Kasturchand J Gadiya

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Page 5
________________ ॥श्री ॥ प्रस्ताविक विज्ञप्ति। ___ हमारे जैन समुदायमें परस्पर स्वबन्धु क्या कार्य करते है, "उनके दिलका क्या अभिप्राय है, कौन सुसी है, कौन दुनी है, किस देशमे किस व्यापारमै हानि है, किस मलाम, किस तीर्थकी च्यवस्था ठीक, किसकी सराब इत्यादि बातें जानने के लिये गुजरात प्रात के सिवाय अन्य प्रातोंमें एक ऐस हिन्दी भाषा के पत्रको कितनी आवश्यकता थी, यह स्वय पाठकही सोच सत्ते हैं। इस आवश्यकता को मिटाने के लिये सेवक कितने ही समय से उत्सुकथा पर द्रव्य के अभावके कारण हो क्या सकता था । जन योगायोग आता है तभी किसी भी कार्यके होनेमें उछविलम्बनहीं नगवा । उसी प्रकार चालक हिन्दी जैनके जन्म लेनेके लिये योग आगया। वस शीघ्रही हमारी मनो कामना साफल्य होगइ और तत्काल हमारी जातिकी सेवा बजाने को यह बानक पालनेसे कूबपड़ा । जो प्रति गुरुवार को सैफडों हजारों माईल की मुसाफिरी कर सन मोरके समाचार ले आपकी सेवा म दौडता हुआ आ उपस्थित होता है। जब यह बालक जैन कामका समा जाने लगा तो इसने यह भी विचार कर लिया कि मेरे परम प्रिय पाठकों को और भी नाना भाति की पुस्तक पढने को दूं और उना मारजन करूानिस मे मेरे दयालु पाठक मुझे अच्छी तरह से पाले पांसें और जाति को सेवा पजाने के लिये मेरा उत्साह बहावे । धारक (हिन्दीजन) का विचार देग्य हमसे भी यही उत्कठा हुई की अवश्यमेव जन साहित्य की पुस्तकें वयार करवा करके पाठकों अर्पण करें, उसी उद्देश्य से विद्वजाना से विनय कर

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