Book Title: Jain Kumarsambhava Mahakavya
Author(s): Jayshekharsuri
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 211
________________ चलने पर, (तुम्हारे पुत्र से) बलपूर्वक, राजसमूह (चन्द्रमण्डल के) युद्ध में भग्न हो जाने पर (तुम्हारे पुत्र के) दोनों पैरों से कमलों के ग्लानि को प्राप्त होने पर यह तुम्हारा ही पुत्र अब मेरी गति है, यह कहने के लिए वह लक्ष्मी आयी है; क्योंकि धीरबुद्धि वालों को अपनी जाति के श्रेष्ठ लोगों में प्रविष्ट होकर स्वामी की कृपा प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए। स्वसौरभाकर्षितषट्पदाध्वगा, स्त्रगालुलोके यदि कौसुमी त्वया। ततः सुतस्ते निजकीर्तिसौरभावलीढविश्वत्रितयो भविष्यति ॥ ४४॥ अर्थ :- अपने सौरभ से जिसने भ्रमर रूप पथिकों को आकर्षित किया है ऐसी पुष्पमाला को यदि तुमने देखा है तो तुम्हारा पुत्र अपनी कीर्ति के सौरभ से तीनों लोकों को व्याप्त करने वाला होगा। अयं विवादे ननु दानविद्यया, विजेष्यते नश्चिरशिक्षितानपि। ___इयं भियतीव सुरद्रुमिर्भवद्, भुवो ददे दण्डपदेऽथवा किमु॥ ४५ ॥ अर्थ :- यह तुम्हारा पुत्र निश्चित रूप से चिरशिक्षित भी हम लोगों को दान विद्या से जीत लेगा मानों इस भय से ही कल्पवृक्षों ने यह माला तुम्हारे पुत्र के दण्डस्थान में दी। भवान् ममादेशवशो भवेद्गृही, गृहीतदीक्षस्य च नास्मि ते प्रभुः। वदन्निदं वानुगभृङ्ग निःस्वनैः, स्मरोऽस्य रोपं व्यसृजत् स्रजश्छलात्॥ ४६॥ अर्थ :- पृष्ठस्थ भौंरों के शब्द से आप गृही होते हुए मेरे आदेश के वश होंगे और दीक्षा लेने पर तुम्हारा स्वामी नहीं हूँ मानों यह कहते हुए कामदेव ने माला के बहाने बाण छोड़ा। यदिन्दुरापीयत पार्वणस्त्वया, ततः सुवृत्तो रजनीघनच्छविः। सदा ददानः कुमुदे श्रियं कला-कलापवांस्ते तनयो भविष्यति॥४७॥ अर्थ :- हे प्रिये ! रात्रि में जिसकी बहुत कान्ति है ऐसे कुमुदों को शोभा प्रदान करते हुए, कलाओं के समूह से युक्त जो पूर्णिमा के चन्द्रमा को पी लिया अतः सुचरित्र, हरिद्रा के समान छवि वाला, पृथ्वी के हर्ष के लिए सदा शोभा प्रदान करने वाला, गीत, वाद्य, नृत्य, गणित, पठित, लिखित आदि कलाओं के समूह वाला तुम्हारा पुत्र होगा। त्वदाननस्पर्धि सरोजमोजसा, निमीलयिष्यामि तथाधिकश्रिये। तव श्रयिष्यामि सितातपत्रता-ममुक्तमुक्तामिषतारतारकः॥ ४८॥ परं रुजन् राजकमाजिभाजिनं, न राजशब्दं मम मार्टमर्हसि। इतीव विज्ञापयितुं रहो रयादुपस्थितोऽयं तनयं तवाथवा॥४९॥ युग्मम (१३४) [जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-९. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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