Book Title: Jain Kumarsambhava Mahakavya
Author(s): Jayshekharsuri
Publisher: Prakrit Bharti Academy

View full book text
Previous | Next

Page 219
________________ अर्थ :हे नाथ! मैंने अपनी मूर्खता के चिन्तन में विद्वज्जनों के योग्य आपके गुणों के स्तवों को निवारकों के होने पर भी कुछ कहा है तो भक्ति की तन्मयता के कारण उसे जानिए। स्वादुतां मृदुलतामुदारतां, सर्वभावपटुतामकूटताम् । शंसितुं तव गिरः समं विधिः, किं व्यधान्न रसनागणं मम ॥ ६ ॥ अर्थ :- हे नाथ! विधाता ने आपकी वाणी की स्वादुता, मृदुलता, उदारता, , सर्व भावपटुता तथा सत्यता को एक साथ कहने के लिए मेरी रसना समूह को क्यों नहीं बनाया? किन्तु ते हृदि गंभीरतागुणं, शिक्षितुं वसति दुग्धसागरः । ईदृगुक्तिपयसां यदूर्मयो, विस्फुरन्ति बहिराननाध्वना ॥ ७ ॥ अर्थ हे नाथ! क्षीरसागर आपके हृदय में गम्भीरता गुण की शिक्षा लेने के लिए निवास करता है, जो कि इस प्रकार उक्ति रूपी दुग्ध की कल्लोलें आपके मुख मार्ग से बाहर फैलती हैं। -: स्वस्थमेव सुखयन्त्यहो जनं, दुःखितेष्वपि सुखं ददानया । बिभ्यतीव भवतो जिता गिरा, किं सुधा न वसुधामियर्ति सा ॥ ८ ॥ अर्थ हे नाथ! आश्चर्य है, दुखी व्यक्तियों को भी सुख देने वाली आपकी वाणी से पराजित हुई स्वस्थ व्यक्ति को सुख प्रदान करने वाली यह सुधा पृथ्वी पर क्यों नहीं आती है? वैधवं ननु विधिर्न्यधात्सुधा- सारमत्र सकलं भवगिरि । पूर्णिमोपचितदेहमन्यथा, तं कथं व्यथयति क्षयामयः ॥ ९ ॥ अर्थ : हे नाथ! विधाता ने चन्द्रमा सम्बन्धी अमृत के सार को इस आपकी वाणी में रख दिया, अन्यथा क्षयरोग पूर्णिमा में पुष्ट देह चन्द्र को कैसे व्यथित करता है ? (१४२) बद्धधारममृतं भवद्वचो, निर्व्यपायमभिपीय साम्प्रतम् । प्रीतिभाजिनि जनेऽत्र नीरसा, शर्करापि खलु कर्करायते ॥ १० ॥ अर्थ :हे नाथ! शर्करा भी जिसकी धारा बँधी है ऐसे अमृत को बिना किसी विघ्न के पीकर प्रीति का सेवन करने वाले मेरे जैसे लक्षण वाले व्यक्ति के प्रति नीरस होकर इस समय निश्चित रूप से कड़े रूप में आचरण करती है। प्राक्कषायकलुषं ततो घनं, घोलनार्पितरसं विनाशि यत् । तद्रिपूकृतघनागमं समं, नाम्नमीशवचसामनीदृशाम् ॥ ११ ॥ Jain Education International [ जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग- १० ] www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266