Book Title: Jain Kumarsambhava Mahakavya
Author(s): Jayshekharsuri
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 242
________________ दाता कुलीनः सुवचा रुचाढ्यो, रत्नं पुमानेव न चाश्मभेदः । - तद्रत्नगर्भा भवतीं निरीक्ष्य, तयाख्ययापनपतेतरां भूः॥ ३४॥ अर्थ :- हे देवि! दाता, कुलीन, अच्छे वचन वाला तथा कान्ति से समृद्ध पुरुष ही रत्न है, पाषाण विशेष रत्न नहीं है। अतः आपको रत्नगर्भा देखकर पृथिवी रत्नगर्भा इस नाम से लज्जित होती है। सुवर्णगोत्रं वरमाश्रितासि, गर्भं सुपर्वागममुद्वहन्ती। श्रियं गता सौमनसीमसीमां, न हीयसे नन्दनभूमिकायाः॥३५॥ अर्थ :- हे देवि! सुन्दर जिसमें वर्ण है ऐसा जिसका नाम है, इस प्रकार के वर का तुमने आश्रय लिया है (नन्दनवन भूमि के पक्ष में वर-श्रेष्ठ, सुवर्णगोत्रं-मेरु) जिसका देवों से आगमन हुआ है, ऐसे गर्भ को धारण किए हुए हो (पक्ष में-जिसमें देवों का आगम है ऐसे गर्भ को धारण कए हुए हो) तथा असीम सुन्दर मन की शोभा को प्राप्त (पक्ष में-फूलों की शोभा को प्राप्त) तुम नन्दन वन की भूमिका से कम नहीं हो। रिपुद्विपक्षेपिबलं गभीरा, न भूरिमायैः परिशीलनीया। - गर्भ महानादममुं दधाना, परैरधृष्यासि गिरेर्गुहेव ॥ ३६॥ अर्थ :- हे देवि! गुफा के समान गम्भीर, अत्यधिक माया बहुलों की (अथवा शृगालों की) अनाश्रयणीय तुम महान् कीर्तिशाली (पक्ष में-सिंह) शत्रुरूप हाथियों का तिरस्कार करने वाला जिसका बल है ऐसे इस गर्भ को धारण करती हुई पर्वत की गुफा के समान अन्यों के द्वारा जानने योग्य नहीं हो। - जित्वा गृहव्योममणी स्वभासा, ध्रुवं तव प्रोल्लसिता सुतेन। तत्तेन मध्ये वसताभ्रगेह-द्वयीव धत्से नवमेव तेजः॥ ३७॥ अर्थ :- हे देवि! आपका पुत्र अपनी कान्ति से दीपक और सूर्य को जीतकर निश्चित रूप से अत्यधिक सुशोभित होगा। अतः उसके उदर में निवास करने पर आकाश और ... गृह के समान नवीन ही तेज को धारण कर रही हो। अथवा आकाशगृह के समान तेज को धारण कर रही हो। सूते त्वया पूर्वदिशात्र भास्व-त्युल्लासिनेत्राम्बुजराजि यत्र। दृष्टामृताघ्राणसुखं वपुर्मे , सरस्यते तद्दिनमर्थयेऽहम् ॥ ३८॥ अर्थ :- मैं उस दिन को चाहता हूँ, जिसमें पूर्व दिशा के सदृश तुमसे देदीप्यमान विकसित नेत्रसमूह रूप कमल अमृत से तृप्ति रूप सुख को व इस पुत्र के होने पर, मेरा शरीर सरोवर के समान आचरण करे। [जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-११] ६६५) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary:org -

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