Book Title: Jain Kumarsambhava Mahakavya
Author(s): Jayshekharsuri
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 248
________________ तोयाशया धावित एष पान्थ-व्रातो विमुह्यन् मृगतृष्णिकाभिः। अप्राप्य तोयं क्षरदश्रुपूरै-रुत्थापयत्यम्बु किलोषरेऽपि॥६५॥ अर्थ :- मृगतृष्णाओं से मोहित करता हुआ यह पथिकों का समूह जल की इच्छा से दौड़ता हुआ जल को न पाकर गिरते हुए आँसुओं के समूह से निश्चित रूप से ऊपर स्थान पर भी जल को प्रकट करता है। अमी निमीलन्नयना विमुक्त-बाह्यभ्रमा मौनजुषः शकुन्ताः। श्रयन्ति सान्द्रद्रुमपर्णशाला, अभ्यस्तयोगा इव नीरजाक्षि॥६६॥ अर्थ :- हे कमलनयनी! ये नेत्र बन्द कर बाह्य भ्रम से विमुक्त, मौनयुक्त पक्षी घने वृक्षों की पर्णशाला का आश्रय ले रहे हैं, मानो (इहोंने) योग का अभ्यास किया हुआ हो। उदीयमानोऽकृत लोककर्म-साक्षीत्यभिख्यामयमाहितार्थाम्। भास्वानिदानीं तु कृतान्ततात, इति त्विषा त्रासितसर्वसत्त्वः॥६७॥ अर्थ :- इस सब प्राणियों को डराने वाले सूर्य ने उदीयमान होकर 'लोक के कर्म का साक्षी है', इस नाम को सत्यार्थ कर दिया। पुन: इस समय यमराज का भी पिता है इस प्रसिद्धि को सत्यार्थ कर दिया। इतीरयित्वा विरतास तास, तारुण्यमारूढमहर्निरीक्ष्य। , सुमङ्गलाथ स्वयशोनियुक्त-धीमज्जना मज्जनसद्म भेजे॥ ६८॥ अर्थ :- दिन में यौवन को आरुढ़ देखकर सखियों के ऐसा कहकर विरत हो जाने पर आत्मीय यश से विद्वज्जनों को व्यापारित करने वाली सुमङ्गला ने स्नानगृह का सेवन किया। तद्वक्षोजश्रीप्रौढिमालोक्य हैमैः, कुम्भैर्मंदाक्षेणेव नीचीभवद्भिः। अम्भः सम्भारभ्राजिभिः स्नानपीठ-न्यस्तां सख्यस्ता मजयामासुराशु॥६९॥ अर्थ :- सखियों द्वारा स्नान के पीढ़े पर रखे हुए जलसमूह से सुशोभित उसके स्तनों की प्रौढ़ता को देखकर मानों (लजा से) आँखें बन्द कर नीचे होते हुए सुवर्ण के कुम्भों ने शीघ्र स्नान कराया। जगद्भर्तुर्वाचा प्रथममथ जम्भारिवचसा, रसाधिक्यात्तृप्तिं समधिगमितामप्यनुपमाम्। स्वरायातैर्भक्ष्यैः शुचिभुवि निवेश्यासनवरे, बलादालीपाली चटुघटनयाऽभोजयदिमाम्॥७०॥ [जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-११] (१७१) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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