Book Title: Jain Kumarsambhava Mahakavya
Author(s): Jayshekharsuri
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 245
________________ सुवर्ण से निर्मित मुकुट के मस्तक पर रखने पर अष्टापद नामवाला पर्वतश्रेष्ठ (राजा उदारशोभा को क्या नहीं धरेगा? अपितु धरेगा ही। __ तथैष योगानुभवेन पूर्व-भवे स्वहस्तेऽकृत मोक्षतत्त्वम्। स्वरूपवीक्षामदकर्मबन्धात्-त्रातुं यथाऽऽसत्स्यति तद्रयेण॥४८॥ अर्थ :-- इस तुम्हारे पुत्र ने पूर्वजन्म में योग की सामर्थ्य से अपने हाथ मोक्षतत्त्व उर प्रकार किया कि वह मोक्षतत्त्व वेगपूर्वक स्वरूपदर्शन से मद कर्म के बन्ध से रक्ष करने में आसन्न होगा। एवं पुमर्थप्रथने समर्थः, प्रभानिधिः:स्व्यनिरासनिष्ठः। पाल्यो महोास्तव पद्मराग, इव प्रयत्नान्न न गर्भगोऽयम्॥४९॥ अर्थ :- हे देवि! इस प्रकार पुरुषार्थ के विस्तारण में समर्थ प्रभा निधि, दारिद्रय के निराकरण में तत्पर यह गर्भस्थ पुत्र महापृथिवी के पद्मराग के समान महोद्यम से (क्या पालनीय नहीं है? अपितु पालनीय ही है। गीर्वाणलोकेऽस्मि यथा गरीयां-स्तथा नृलोके भविता सुतस्ते। वयस्थ एवात्र सदृग्वयस्य-सम्पर्कसौख्यानि गमी ममात्मा॥५०॥ . अर्थ :- जिस प्रकार मैं देवलोक में श्रेष्ठ हूँ, उसी प्रकार तुम्हारा पुत्र मनुष्य लोक में श्रेष्ठ होगा पुत्र के यौवन प्राप्त करते ही मेरी आत्मा समान मित्र के सम्पर्क के सौख्यों को प्राप्त होगी। इत्युक्तिभिर्वृष्टसिताम्बुमेघ-घाममोघां मघवा विधाय। तिरोदधे व्योमनि विद्युदर्चिः-स्तोमं स्वभासा परितो वितत्य ॥५१॥ अर्थ :- आकाश में अपनी कान्ति से चारों ओर विद्युत के तेज समूह का विस्तार कर इन्द्र इस प्रकार की उक्तियों से जिसने मधर वर्षा की है ऐसे मेघ की प्रशंसा को सफल कर अदृश्य हो गया। तस्मिन्नथालोकपथाद्विभिन्ने, हन्नेत्रराजीवविकाशहतौ। सा पद्मिनीवानघचक्रबन्धौ, क्षणात्तमः श्याममुखी बभूव ॥ ५२॥ अर्थ :- अनन्तर हृदय और नेत्रकमल के विकाश के हेतु, निष्पापों के समूह में बन्ध सदृश (पक्ष में-निर्दोष सूर्य के) इन्द्र के आलोक पथ से पृथक् होने पर वह सुमङ्गला कमलिनी के समान क्षण भर में विषाद से श्याम मुख वाली हो गई। अवोचदालीरुपजानुपाली-भूय स्थिता गद्गदया गिरा सा। अतृप्त एवात्र जने रसस्य, हला बलारिय॑रमत् किमुक्तेः॥५३॥ (१६८) - [जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-११] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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