Book Title: Jain Kumarsambhava Mahakavya
Author(s): Jayshekharsuri
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 225
________________ अर्थ :- सुवर्ण की हंसियों के पंखों के समान जिनकी शोभा है ऐसे सैंकड़ों सखियों के हाथ उत्सुक होते हुए रक्षा करने के लिए जिनकी जड़ एक है ऐसे दो कमलों की आभा वाले उस सुमङ्गला के दोनों चरणों के ऊपर पड़े। पाणिपूरपरिमईमर्दना-हे तुमप्यपगतश्रमत्वतः। सालिपालिमरुणन्न तन्मनो-रङ्गभङ्गभयतोऽतिवत्सला॥४२॥ अर्थ :- उस सुमङ्गला ने उन सखियों के मन के आनन्द के भङ्ग होने के भय से अत्यन्त स्नेहवती होकर थकान के दूर होने से सखी समूह को पीड़ा के हेतु हस्त समूह के परिमर्द को नहीं रोका। स्वप्रवीक्षणमुखामुषाभरे, भर्तृवेश्मगतिहेतुदां कथाम्। तासु सासनमतासु विस्तृत-श्रोत्रपात्रपरमामृतं व्यधात्॥ ४३॥ अर्थ :- सुमङ्गला ने सखियों के आसन पर चले जाने पर रात्रि के मध्य भाग में स्वप्नों का दिखाई देना जिनमें प्रमुख है ऐसी स्वामी के घर में गमन के हेतु को प्रदान करने वाली कथा को विस्तृत श्रोत्र रूपी पात्र के लिए परम अमृत कर दिया। . तोषविस्मयभवः सखीमुखा-दुद्ययौ कलकलः स कश्चन। अन्तरालयकुलायशायिभि-र्येन जागरितमण्डजैरपि॥ ४४॥ अर्थ :- हर्ष और विस्मय से उत्पन्न सखियों के मुख से वह कोई कोलाहल उत्पन्न हुआ जिसने घर के मध्य घोंसले में शयन करने वाले पक्षियों को भी जागृत कर दिया। स्वप्नमेकमपि सालसेक्षणा, किं विचारयितुमीश्वरीदृशम्।। उल्लसत्तमसि यन्मनोगृहे, सञ्चरन्त्यपि बिभेति भारती॥ ४५॥ अर्थ :- वह अलस नयनों वाली ऐसे स्वप्नों में से एक के भी विषय में विचार करने में समर्थ है, अपितु नहीं है। जिसमें अज्ञान रूप अन्धकार उठ रहा है ऐसे जिसके मनोगृह में सरस्वती संचरण करती हुई भी डरती है। वर्णयेम तव देवि कौशलं, यत्प्रकृत्यकृतिनीरुपेक्ष्य नः। देवदेववदनादनाकुलं, स्वप्नसूनृतफलं व्यबुध्यथाः॥ ४६॥ अर्थ :- हे देवि! हमें तुम्हारे कौशल का वर्णन करना चाहिए; क्योंकि तुमने स्वभाव से मूर्ख हम लोगों की उपेक्षा कर श्री ऋषभदेव के मुख से आकुलता रहित होकर स्वप्नों का सत्य फल ज्ञात किया है। नाथवक्त्रविधुवाक्करोंभित-स्त्वत्प्रमोदजलधिः सदैधताम्। एवमालपितमालिभिर्वचः,शुश्रुवे श्रुतिमहोत्सवस्तया॥४७॥ (१४८) [जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-१०] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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