Book Title: Jain Kumarsambhava Mahakavya
Author(s): Jayshekharsuri
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 226
________________ अर्थ :-- हे स्वामिनि ! तुम्हारा प्रमोद रूपी समुद्र, जो कि स्वामी के मुख रूप चन्द्रमा की किरणों से पूरित है, निरन्तर वृद्धि को प्राप्त हो। सखियों के इस प्रकार कहे गए, दोनों कानों के लिए महोत्सव रूप वचन उस सुमङ्गला के द्वारा सुने गए। वाग्मिषादथ सुमङ्गला गला-यातहन्नदजसंमदामृता। आदिशद्दशनदीधितिस्फुटी-भूतमुज्ज्वलमुखी सखीगणम्॥४८॥ अर्थ :- अनन्तर वाणी के बहाने से गले में आगत हृदय रूपी नद से उत्पन्न हर्ष रूपी अमृत वाली उज्ज्वलमुखी सुमङ्गला ने दाँतों की किरणों से प्रकटीभूत सखीगणों को आदेश दिया। रामणीयकगुणैकवास्तुनो, वस्तुनः सुकरमर्जनं जने। भाविविप्लवनिवारणं पुन-स्तस्य दुष्करमुशन्ति सूरयः॥ ४९॥ अर्थ :- रमणीयता रूप गुण का एक स्थान वस्तु का अर्जन व्यक्ति में सुलभ है पुनः उस वस्तु के भावी विनाश के निवारण को विद्वान् लोग दुष्कर कहते हैं। अर्जिते न खलु नाशशङ्कया, क्लिश्यमानमनसस्तथा सुखम्। जायते हृदि यथा व्यथाभरो, नाशितेऽलसतया सुवस्तुनि ॥५०॥ अर्थ :- सुन्दर वस्तु के अर्जन करने में निश्चित रूप से नाश की शङ्का से दुःखी मन वाले पुरुष के वैसा सुख नहीं होता है जैसा आलस्य के कारण सुन्दर वस्तु का नाश होने पर व्यथा का समूह उत्पन्न होता है। दृष्टनष्टविभवेन वर्ण्यते, भाग्यवानिति सदैव दुर्विधः। जन्मतो विगतलोचनं जनं, प्राप्तलुप्तनयनः पनायति ॥५१॥ अर्थ :- देखते-देखते जिसका वैभव नष्ट हो गया है ऐसा पुरुष सदैव दरिद्र को भाग्यवान् कहता है । प्राप्त हुए जिसके नेत्र नष्ट हो गए हैं ऐसा पुरुष जन्मान्ध व्यक्ति की स्तुति करता है। हारिमा तदिदमद्य निद्रया, स्वप्नवस्तु मम सम्मदास्पदम्। तत्प्रमादमवधूय रक्षितुं, यामिकीभवत यूथमालयः॥ ५२॥ अर्थ :- अत: हर्ष की स्थान इस मेरी स्वप्न की वस्तु को निद्रा से आज हरण मत करो। हे सखियों! उस स्वप्न की वस्तु को प्रमाद छोड़कर रक्षा करने के लिए तुम सब आरक्षिकी हो जाओ : स्वप्नवस्तु दयतेऽप्यगोचरं, दत्तमप्यहह हन्ति तामसी। संनिरुध्य नयनान्यचेतसां, चेष्टते जगति सा यदृच्छया॥ ५३॥ [जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-१०] (१४९) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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