Book Title: Jain Kumarsambhava Mahakavya
Author(s): Jayshekharsuri
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 237
________________ अर्थ :- उस अवसर पर कुछ पुरुषों ने यह पूर्वसमुद्र से क्या वडवानल खारे जल के पाने से तृषा शान्त न होने पर नदी और तालाब के स्वाद युक्त जल को पीने के लिए उदित हुआ है, यह कहा। इन्दोः सुधास्त्रःविकरोत्सवज्ञा-विज्ञातभाव्यर्ककरोपतापा। व्याजानिशाजागरगौरवस्य, शिश्ये सुखं कैरविणी सरस्सु॥६॥ अर्थ :- चन्द्रमा की आकृति को बर्षाने वाली किरणों के उत्सव को जानने वाली तथा आगामी सूर्य की किरणों के ताप को जानने वाली कुमुदिनी रात्रि में जागरण के गौरव के बहाने से सरोवरों में सुखपूर्वक सोयी। बद्धाञ्जलिः कोशमिषाद्गतेना, जातश्रियं पङ्कजिनीं दिनाप्त्या। जहास यत्तद्व्यसने निशायां, कुमुद्वती तत् क्षमयाम्बभूव ॥७॥ अर्थ :- दिन की प्राप्ति होने से जिसको शोभा प्राप्त हो गई है, ऐसी कमलिनी के प्रति कोश के बहाने से जिसने अञ्जलि बाँधी है, ऐसी कुमुदिनी ने, रात्रि में जो कि कमलिनी के कष्ट में होने पर हँसी की थी, उसे क्षमा कराया। देहेन सेहे नलिनं यदिन्दु-पादोपघातं निशि तं ववाम। पराभवं सूरकराभिषङ्गे, प्रगे हृदो निर्यदलिच्छलेन॥ ८॥ अर्थ :- कमल ने रात्रि में जो चन्द्रमा की किरणों के प्रहार को शरीर से सहन किया। (वह) प्रातःकाल में सूर्य की किरणों का संसर्ग होने पर हृदय से निकलते हुए भौंरों के बहाने से उस पराभव को प्रकट करता था। भित्त्वा तमःशैवलजालमंशु-मालिद्विपे स्फारकरे प्रविष्टे। आलीनपूर्वोऽपससार सद्यो, वियत्तडागादुडुनीडजौघः॥ ९॥ अर्थ :- अन्धकार रूप शैवाल के समूह को भेदकर प्रौढ़ किरणों वाले (महाशुंडादण्ड वाले) सूर्य रूप हाथी के प्रविष्ट होने पर नक्षत्र रूप पक्षि समूह पूर्व में निविष्ट होकर तत्काल आकाश रूप सरोवर से हट गया। किञ्चित् समासाद्य महः पतङ्ग-पक्षः क्षपायां यदलोपि दीपैः। तां वैरशुद्धिं व्यधिताभिभूय, दीपान् प्रगे कोऽप्युदितः पतङ्ग॥१०॥ अर्थ :- दीपों से रात्रि में कुछ तेज प्राप्त कर शलभ पक्ष (पक्ष में-सूर्य पक्ष) ने जो लोप किया, प्रभात में किसी सूर्य (शलभ) ने उदित होकर दीपकों का तिरस्कार कर (उस) वैर की शुद्धि की। (१६०) [जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-११] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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