Book Title: Jain Kumarsambhava Mahakavya
Author(s): Jayshekharsuri
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 227
________________ अर्थ :- वह तमोमयी रात्रि चित्तरहित व्यक्तियों के नेत्रों को रोककर संसार में चेष्टा करती है । जो रात्रि अगोचर भी स्वप्न की वस्तु को स्वेच्छा से देती है। खेद है, दी हुई भी वस्तु को नष्ट कर देती है। वासरे सरसिजस्य जाग्रतो, गर्भमन्दिरमुपेयुषीं श्रियम्। शर्वरीसमयलब्धविक्रमा, लुम्पतीयमनिमित्तवैरिणी॥ ५४॥ अर्थ :- यह निद्रा बिना निमित्त के ही वैरिणी है, जो रात्रि के समय लब्धपराक्रमा होती हुई दिन के समय जागते हुए कमल के गर्भमन्दिर को प्राप्त होकर उसकी लक्ष्मी का हरण करती है। यद्यसौ भुवनवञ्चनोत्सुका, स्वप्नराशिमपहृत्य तादृशम्। दास्यते किमपि गर्हितं तदा, पत्तने वसति लुण्टितास्मि हा॥५५॥ अर्थ :- यदि वह निद्रा भुवन को ठगने के लिए उत्सुक स्वप्नराशि का अपहरण कर वैसा कोई गर्हित स्वप्न दिलाएगी तो हा पत्तन में लूट ली गयी हूँ। सर्वसारबहुलोहनिर्मितै - युष्मदानननिषङ्गनिर्गतैः। वाक्शरैः प्रसरमेत्य धर्मतो, धर्षितेयमिह मासदत्पदम्॥५६॥ अर्थ :- धर्म से (पुण्य से) सर्वोत्कृष्ट सार की जिसमें बहुलता है ऐसे विचार से निर्मित (पक्ष में सर्वसारमय बहुत लोह से निर्मित) आपके मुख रूप तूणीर से निर्गत वाणी रूपी बाणों से विस्तार को प्राप्त कर इस निद्रा ने मुझमें स्थान प्राप्त किया। तत्तदुत्तमकथातरङ्गिणी - भङ्गिमज्जनकसज्जचेतसा। नैशिकोऽपि समयो मयोच्यतां, वासरः स्वरसनष्टनिद्रया॥५७॥ अर्थ :- अतः स्वभाव से जिसकी निद्रा नष्ट हो गई है एवं उन-उन उत्तम कथा रूपी नदियों की कल्लोलों में स्नान करने में जिसका चित्त लगा हुआ है ऐसे मेरे द्वारा रात्रि सम्बन्धी भी समय को दिन कहा जाना चाहिए। स्वप्रभङ्गभयकम्पमानसां, मां विबोध्य सरसोक्तियुक्तिभिः। जाग्रतोऽस्ति नहि भीरितिश्रुति- यिषीष्ट चरितार्थतां हलाः॥५८॥ अर्थ :- स्वप्न के भङ्ग होने से जिसका मन कम्पित है ऐसे मुझे सरस उक्ति रूपी युक्तियों से जगाकर, जागते हुए को भय नहीं है, इस श्रुति को चरितार्थ कराओ। एवमूचुषि विभोः परिग्रहे, विग्रहे घनरुचिः सखीगणः। धर्मधामगुणगीर्णवाक्शरा-सारमारभत मारभङ्गिवित्॥ ५९॥ (१५०) [जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-१०] For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International

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