Book Title: Jain Kumarsambhava Mahakavya
Author(s): Jayshekharsuri
Publisher: Prakrit Bharti Academy

View full book text
Previous | Next

Page 233
________________ अर्थ संसार में कौन बलवान् है ? कौन शोक का स्थान है ? कृपण व्यक्ति याचना करने पर क्या कहता है, सुभट का मन कैसा होता है, देवों में कौन भैरव है, तुम्हारा पति कैसा है, ऐसी प्रश्न परम्परा को करने वाली सखी को सुवर्ण की कान्ति को फीकी कर देने वाली उस सुमङ्गला ने 'नाभिभूत' यह एक उत्तर मानों लीलापूर्वक देते हुए विस्मित कर दिया । विशेष -: -: प्रश्न उत्तर प्रश्न उत्तर प्रश्न उत्तर प्रश्न उत्तर प्रश्न उत्तर प्रश्न उत्तर (१५६) - संसार में कौन बलवान् है ? ना अर्थात् पुरुष बलवान् है । कौन शोक का स्थान है ? अर्थ : पराभूत । कृपण व्यक्ति याचना करने पर क्या कहता है ? न । सुभट का मन कैसा होता है ? अभि-अर्थात् भयरहित । देवों में भैरव कौन है ? उत्तरोत्तरकुतूहलैरिमां चान्तचेतसमुवाच काचन । दृश्यतां सहृदयेऽरुणोदयो, जात एव दिशि जम्भवैरिणः ॥ ७७ ॥ अर्थ :उत्तरोत्तर कुतूहलों से व्याप्त मन वाली इस सुमङ्गला से किसी सखी ने कहा - हे सहृदये ! इन्द्र की दिशा (पूर्व दिशा) में सूर्योदय उत्पन्न होते ही देखो । भूत । तुम्हारा पति कैसा है ? नाभि से उत्पन्न । Jain Education International शंख एष तव सौख्यरात्रिको, द्वारि संनदति दीयतां श्रुतिः । आर्यकार्यफलवर्धनस्वनो-पज्ञपुण्यपटलैरिवोज्ज्वलः ॥ ७८ ॥ अर्थ :हे स्वामिनि ! रात्रि सुख से व्यतीत हुई मानों यह पूछने वाला, श्रेष्ठ कार्यों के फल की वृद्धि करने वाले शब्द के होने से मानों पुण्य समूह के समान उज्ज्वल यह शंख तुम्हारे द्वार पर शब्द कर रहा है, कान लगाइए । जाग्रदेव तव शान्तदिग्मुखो, वक्ति यन्मृदुरवः प्रियं द्विकः । किं ततः सुचरिताद् द्विजन्मना - मग्रभोजनिकतामयं गमी ॥ ७९ ॥ हे स्वामिनि ! जागने पर ही सुकोमल शब्द करने वाला दिशाओं के अग्रभाग [ जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग -१० ] www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266