Book Title: Jain Kumarsambhava Mahakavya
Author(s): Jayshekharsuri
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 222
________________ दत्तदक्षिणभुजा निजासने, गर्भगे धरणिपाकशासने। सोदतिष्ठदतनुस्तनावनी-भृत्तटीललितहारनिर्झरा ॥ २३॥ अर्थ :- स्थूल स्तन रूप दो पर्वत को धारण करने वाले तटों पर विलास हार जिसके झरने हैं ऐसी सुमङ्गला पृथ्वी के इन्द्र (चक्रवर्ती) के गर्भस्थ होने पर अपने आसन पर दायाँ हाथ रखकर उठी। फुल्लमल्लिकमिदं वनं किमु, स्मेरकैरवगणं सरोऽथवा। एवमूहविवशा निशामयं-त्यभ्रमक्रमविकीर्णतारकम् ॥ २४॥ बिभ्यती स्खलनतः शनैः शनैः, प्राञ्जलेऽपि पथि मुञ्चती पदौ। अल्पकेऽपि भवनान्तरे गते, स्तानवेन भवनान्तरीयिता॥ २५॥ कौतुकाय दिविषत्पुरधिभिः, स्वं तिरोहितवतीभिरग्रतः। शोध्यमानसरणिः शिरस्यथा-धीयमानधवलातपत्रिका॥ २६॥ रत्नभित्तिरुचिराशिभासिते-नाध्वना ध्वनितनूपुरक्रमा। वायुनावसरवेदिनेव सा, दम्यमानगमनश्रमाऽचलत् ॥ २७॥ (चतुर्भिः कलापकम्) अर्थ :- अनन्तर यह वन क्या विकसित विचकिल के पुष्पों वाला है अथवा जिसमें कुमुदों के समूह विकसित हैं, ऐसा तालाब है? इस प्रकार विचार करने को विवश होती हुई, एक साथ जिसमें तारागण फैले हुए हैं ऐसे आकाश को देखती हुई, लड़खड़ाने से डरती हुई, सरल भी मार्ग में धीरे-धीरे दोनों चरण रखती हुई, थोड़ा भी भवन के मध्य में चलने पर गति के लाघव से अन्य भवन में विचरण करती हुई, पुनः अपने आपको छिपाती हुई, देवाङ्गनाओं के कौतुक के लिए आगे मार्ग को देखती हुई, सिर पर श्वेत छत्र रखे हुए, जिसके दोनों पैरों में नुपूर शब्द कर रहे हैं मानों अवसर को जानने वाली वायु के द्वारा जिसका गमन का श्रम निकल रहा है ऐसी वह सुमङ्गला रत्नों की भित्तियों की कान्ति के समूह से भासित मार्ग से चली। कान्तमन्दिरमुपेत्य साचिरा-शंसितार्थपरिपूरिताशया। सारसम्मदमहाबलेरिता, स्वं निकेतनमियाय नौरिव ॥ २८॥ अर्थ :- वह सुमङ्गला स्वामी के मन्दिर को पाकर थोड़े से ही समय में कथित स्वप्नार्थ लक्षण से परिपूर्ण अभिप्राय वाली होकर प्रधान हर्ष रूप महान् बल से प्रेरित (नौका के अर्थ में-जिसका मध्य द्रव्य से भरा हुआ है) नाव के समान अपने घर गई। तत्र चित्रमणिदीपदीधिति-ध्वस्यमानतिमिरे ददर्श सा। पानशौण्डमिव लुप्तचेतनं, सुप्तमन्तरखिलं सखीजनम्॥ २९॥ [जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-१०] (१४५) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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